GH. हैरान्र aa २९२ — n,n २० << प 4 7 # तॆ २ ) । ५३१ १ # Ki Le > ड । =< न . tip ~« TSS PURITY ९६६४ :. गयी कि ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार के बिना केवल त्लोकसंग्रह के ford शासत्रसम्मत यज्ञ, दान और तप आदि समस्त कर्म करता EST भी ज्ञानी पुरुष वास्तव 4 ae भी नहीं Hear! इसलिये ae कर्मबन्धन में नहीं पड्टता । इस पर यह प्रश्न उठता है कि ज्ञानी को आदर्श मानकर ody प्रकार से कर्म करनेवाले साधक at नित्य-नैमित्तिकं आदि af का त्याग नहीं करते, निष्कामभाव से wa प्रकार के शासत्रविहित कर्त्तव्य anf का अनुष्ठान करते ted है--इस कारण वे किसी पाप के भागी नहीं बनते; fag जो साघक शासत्रविहित यज्ञ-दानादि कर्मो का अनुष्ठान न करके केवल शरीर निर्वाह मात्र के लिये आवश्यक शौच-स्नान he खान-पान आदि कर्म ही करता है, ae at पाप का भागी eter er | ऐसी शंका की निवृत्ति के लिये भगवान् कहते है-- निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह: | शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् । । २१।। जीता Sar है और जिसने समस्त APT Hr सामग्री का परित्याग ax fear है, Car आशारहित पुरुष केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म HCA SAT HT पाप को नहीं प्राप्त होता ।। २१ ।। Having subdued his mind and body, and given up all objects of enjoyment, and free from craving; he who performs sheer bodily actions, does not incur sin. (21) प्रसंग --उपर्युक्त श्लोकों में यह बात सिद्ध की गयी कि परमात्मा को प्राप्त सिद्ध Terres का तो कर्म करने या न करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा ज्ञानयोग के साधक का ग्रहण SA त्याग शासत्रसम्मत, आसक्तिरहित और ममतारहित erat है; अत: वे कर्म करते हुए या उनका एयाग करते हुए--सभी अवस्थाओं 4 कर्मबन्घन से aden मुक्त Fl अब भगवान् यह बात दिखलाते & कि कर्म मैं अकर्मदर्शन पूर्वक कर्म करने वाला कर्मयोगी tt asters में नहीं पडता--