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1 |
+
INTRODUCTION
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2 |
+
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3 |
+
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा waa |
|
4 |
+
त्वमेव faa, द्रविड्म् aaa, त्वमेव ad ay देव देव ।।
|
5 |
+
|
6 |
+
Thou art Mother, thou art Father, thou art kinsman, thou art friend,
|
7 |
+
thou art knowledge, thou art wealth; thou art my all, O’Lord of Lords.
|
8 |
+
|
9 |
+
‘Srimad Bhagavad Gita’ is just not a holy book, it has alsc
|
10 |
+
gained a prominent place in literature of the world. It contains
|
11 |
+
divine words emanating from the lips of Lord Krishna. This great
|
12 |
+
epic is an eloquent proof of the observation. As a scripture, this
|
13 |
+
Book embodies the supreme spiritual mystery and secrets. Its
|
14 |
+
style is so simple and elegant that with a little study one can
|
15 |
+
easily follow the structure of its words, yet the thoughts behind
|
16 |
+
those words are so deep and abstruse that even for life time,
|
17 |
+
constant study of this Book may not show an end of it.
|
18 |
+
|
19 |
+
‘The Bhagavad Gita’ is an unfathomable ocean of wisdom. It
|
20 |
+
is a bottomless sea containing endless strate of meanings. Just
|
21 |
+
as adiver diving deep in the sea lays his hands on precious gems,
|
22 |
+
similarly diving deeper and deeper into the secrets of this Book,
|
23 |
+
the seeker goes on discovering more and more piles of
|
24 |
+
extraodrdinary gems of thoughts and ideas.
|
25 |
+
|
26 |
+
‘The Bhagavad Gita’ is a part of the Mahabharata, but even
|
27 |
+
then it has its own identity, which has made it more prominent
|
28 |
+
than the Mahabharata. It may look to be just a narration of the
|
29 |
+
happenings of the war between Kauravas and Pandavas, but it
|
30 |
+
is the philosophy of life, expressed from the lips of Lord Krishna,
|
31 |
+
addressed to the warrior Arjuna, defining following ideas :
|
32 |
+
|
33 |
+
(i) Facing your enemies in a war is an asupicious and especial
|
34 |
+
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1 |
+
प्रसंग ea प्रकार अर्जुन के YEA पर भगवान् श्रीकृष्ण कहने लगे--
|
2 |
+
|
3 |
+
श्रीभगवानुवाच
|
4 |
+
काम एष क्रोधं एष रजोगुणसमुद्भव:।
|
5 |
+
महाशनो महापाम्पा विद्धयेनमिह वैरिणम् 113911
|
6 |
+
|
7 |
+
श्रीभगवान् बोले--रजोगुण से SIA SAT यह HA
|
8 |
+
ही क्रोध है, यह Fed खाने aren’ अर्थात् APT से कभी
|
9 |
+
न अघाने वाला Bit Sst पापी है, इसको St तू sa
|
10 |
+
विषय में वैरी जान ।। ३७ |!
|
11 |
+
|
12 |
+
Sri Bhagavan said: It is desire begotten
|
13 |
+
| | of the element of Rajas, which appears as
|
14 |
+
wrath; nay, it is insatiable and grossly wicked.
|
15 |
+
Know this to be the enemy in this case. (37)
|
16 |
+
|
17 |
+
प्रसंग --पूर्वं श्लोक में समस्त अनर्थो का मूल और इस मनुष्य को बिना gear के ord में लगाने
|
18 |
+
। । वाला वैरी काम को बतलाया | इस पर यह जिज्ञासा होती है कि यह काम मनुष्य को किस प्रकार पापां
|
19 |
+
|
20 |
+
(| age करता है ? ora: ora तीन श्लोकों द्वारा ae समञझाते है ae मनुष्य के ज्ञान को आच्छादित
|
21 |
+
। | क्ररके उसे अन्घा बनाकर WT के गड्ढे में ढकेल देता है--
|
22 |
+
|
23 |
+
धूमेनाव्रियते वह्रिर्यथादर्शो att च।
|
24 |
+
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् । । ३।।
|
25 |
+
|
26 |
+
| जाता & तथा जिस प्रकार जेर से af Sar रहता है,
|
27 |
+
© । वैसे & St काम के aN यह ज्ञान Sar रहता
|
28 |
+
\V ।। ३८ 11
|
29 |
+
|
30 |
+
ba ee Ae
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31 |
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1 |
+
As a flame is covered by smoke, mirror by
|
2 |
+
dirt, and embryo by the amnion, so is Knowledge
|
3 |
+
coverd by it (desire) (38)
|
4 |
+
|
5 |
+
प्रसंग --पूर्व श्लोक Fa पद `काम` का और `इदम्`“ पद `ज्ञान` का वाचक B— इस बात को
|
6 |
+
स्पष्ट करते हुए उस काम को अग्नि की citer कभी पूर्ण न होने वाला बतलाते है
|
7 |
+
|
8 |
+
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा
|
9 |
+
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ।। ३६।।
|
10 |
+
|
11 |
+
और हे अर्जुन ! sa अग्नि के समान कभी न पूर्ण
|
12 |
+
होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी के द्वारा मनुष्य
|
13 |
+
का SM SH Sar है ।। ३६ ।।
|
14 |
+
|
15 |
+
And, Arjuna, Knowledge stand covered by
|
16 |
+
this eternal enemy of the wise, known as
|
17 |
+
desire, which is insatiable like fire. (39)
|
18 |
+
|
19 |
+
प्रसंग --इस प्रकार काम के द्वारा ज्ञान को आवृत बतलाकर At Ba मरने का उपाय बतलाने के
|
20 |
+
उद्देश्य से उसके वासस्थान और उसके द्वारा जीवात्मा के मोहित किये जाने का प्रकार बतलाते F—
|
21 |
+
|
22 |
+
इन्द्रयाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते |
|
23 |
+
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्̣ । । ४।।
|
24 |
+
|
25 |
+
इन्द्रियाँ, AT और बुद्धि--ये सब इसके वासस्थान
|
26 |
+
|
27 |
+
we जाते हैं । यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों are | /
|
28 |
+
a am को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित |e
|
29 |
+
|
30 |
+
करता है ।। ४८०८
|
31 |
+
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1 |
+
The senses, the mind and the intellect are
|
2 |
+
declared to be its seat; screening the light of
|
3 |
+
Truth through these; it (desire) deludes the
|
4 |
+
|
5 |
+
lise SECS NSIC YO
|
6 |
+
Zivp oe Cy Wl» ie
|
7 |
+
Y
|
8 |
+
|
9 |
+
\ Y
|
10 |
+
|
11 |
+
embodied soul. (40) |:
|
12 |
+
|
13 |
+
प्रसंग --इस प्रकार कामरूप वैरी के अत्याचार का और ae जहाँ छिपा रहकर अत्याचार करता है,
|
14 |
+
उन वासस्थानों का परिचय कराकर, TS भगवान् उस कामरूप वैरी को मारने की few बतलाते हुए उसे
|
15 |
+
मार डालने के लिये अर्जुन को आज्ञा देते F—
|
16 |
+
|
17 |
+
तस्मात्त्वमिन्दरियाण्यादो नियम्य भरतर्षभ।
|
18 |
+
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् । । ४१।
|
19 |
+
|
20 |
+
इसलिये हे अर्जुन ! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके
|
21 |
+
|
22 |
+
इस ज्ञान Six विज्ञान का AIT करने वाले महान पापी |
|
23 |
+
|
24 |
+
काम को अवश्य ही बलपूर्वक AK डाल ।। ४१ ।।
|
25 |
+
|
26 |
+
Therefore, Arjuna, you must first control NG
|
27 |
+
|
28 |
+
your senses; and then kill this evil thing which
|
29 |
+
obstructs Jhana (Knowledge of the Absolute
|
30 |
+
|
31 |
+
or Nirguna Brahma) and vijnana (Knowledge |
|
32 |
+
|
33 |
+
of Sakar Brahma or manifest Divinity). (41)
|
34 |
+
|
35 |
+
प्रसंग -पूर्व श्लोक में इन्द्रियों को वश में करके कामरूप शत्रु को मारने के लिये कहा गया। इस |
|
36 |
+
पर यह शंका होती है कि जब इन्द्रिय, मन और Sha पर काम का अधिकार है और उनके द्वारा कामने | .
|
37 |
+
जीवात्मा को मोहित ax Tar है at ऐसी स्थिति में ae इन्द्रियों को वश में करके काम को कैसे मार सकता | ;
|
38 |
+
है । इस शंका को दूर करने के लिये भगवान् आत्मा के यथार्थ स्वरूप लक्ष्य कराते BL आत्मबल की स्मृति
|
39 |
+
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1 |
+
इन्दियोकॊस्थूलशरीरसेपरेयानीश्नेष्ठबलवान्
|
2 |
+
AK सूक्ष्म Hed हैं; इन इन्द्रियों से परे मन है, मन a
|
3 |
+
भी परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अन्यन्त परे है
|
4 |
+
qe आत्मा है ।। ४२ ।।
|
5 |
+
|
6 |
+
The senses are said to be greater than
|
7 |
+
the body; but greater than the senses is the
|
8 |
+
mind. Greater than the mind is the intellect;
|
9 |
+
and what is greater than the intellect is he
|
10 |
+
(the Self). (42)
|
11 |
+
|
12 |
+
Vi प्रसंग --अब भगवान् पूर्वं श्लोक के वर्णनानुसार आत्मा को सर्वश्रेष्ठ समझकर कामरूप वैरी को
|
13 |
+
|
14 |
+
एवं बुद्धे परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना |
|
15 |
+
|
16 |
+
we शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् । । ४२।।
|
17 |
+
|
18 |
+
इस प्रकार बुद्धि से परे अर्थात् सूक्ष्म, बलवान् और
|
19 |
+
अत्यन्त ASS AST को जानकर और बुद्धि के ERT
|
20 |
+
WA को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप
|
21 |
+
दुर्जय शत्रु को AK डाल ।। ४३ ।।
|
22 |
+
|
23 |
+
Thus, Arjuna, knowing that which is higher
|
24 |
+
than the intellect and subduing the mind by
|
25 |
+
reason, kill this enemy in the form of Desire
|
26 |
+
that is hard to overcome. (43)
|
27 |
+
|
28 |
+
& तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिघत्सु ब्रह्मविद्यायां abet श्रीकृष्णार्जुन-
|
29 |
+
र्व्यर्शायोगॊक्तातॄतीपोऽप्याय ।। ३ ।।
|
30 |
+
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1 |
+
यहाँ `ज्ञान` शब्द परमार्थ-ज्ञान अर्धात् तत्त्व ज्ञान का, et शब्द कर्मयोग अर्थात् योग arf का
|
2 |
+
Ax `संन्यास` शब्द सांख्ययोग अर्थात् ज्ञान art का वाचक है; विवेकज्ञान और शासत्रज्ञान भी ST शब्द
|
3 |
+
के अन्तर्गत ह । इस Sta अध्याय में भगवान् ने अपने अवतरित होने के रहस्य और तत्त्व सहित कर्मयोग
|
4 |
+
तथा संन्यास योग का और इन सबके फलस्वरूप जो परमात्मा का Tea यथार्थ ज्ञान है, उसका वर्णन किया
|
5 |
+
है; इसलिये इस अध्याय का नाम `ज्ञानकर्म-संन्यास योग` रखा गया है।
|
6 |
+
|
7 |
+
प्रसंग -अब भगवान् पुन: उसके सम्बन्ध में बहुत-सी art बतलाने के उद्देश्य से उसी का प्रकरण
|
8 |
+
आरम्भ करते हुए पहले तीन श्लोकों मै उस कर्मयोग की परम्परा बतलाकर उसकी अनादिता सिद्ध करते
|
9 |
+
हुए प्रशंसा करते है--
|
10 |
+
|
11 |
+
श्रीभगवानुवाच
|
12 |
+
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |
|
13 |
+
|
14 |
+
विवस्वान्मनवे we मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् । । १ । ।
|
15 |
+
|
16 |
+
श्री भगवान् बोले--मैंने se अविनाशी योग at et
|
17 |
+
से कहा a, सूर्य ने अपने GT वैवस्वत AT से HET) ई
|
18 |
+
SR मनु ने AGT पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा ।। १ ।।।.
|
19 |
+
|
20 |
+
Sri Bhagavan said: I taught this immortal |
|
21 |
+
Yoga to Vivasvan (Sun-god); Vivasvan| ।
|
22 |
+
conveyed it to Manu (his son); and Manu).
|
23 |
+
imparted it to (his son) Iksvaku.
|
24 |
+
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|
1 |
+
४ र्किद्र्यट्टुन्दुंइं///////श्रु/// YP PP IOS
|
2 |
+
|
3 |
+
) ढ ९ ३७7
|
4 |
+
|
5 |
+
ग् एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो fag: | Nd
|
6 |
+
न
|
7 |
+
|
8 |
+
स कालेनेह महता AN AS: WaT! २।।
|
9 |
+
|
10 |
+
हे परन्तप अर्जुन ! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस
|
11 |
+
बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो
|
12 |
+
गया ।। २ ।। ॥
|
13 |
+
|
14 |
+
Thus transmitted in succession from father
|
15 |
+
to son, Arjuna, this Yoga remained known to
|
16 |
+
the Rajarsis (royal sages). It has, however,
|
17 |
+
long since disappeared from this earth. (2)
|
18 |
+
|
19 |
+
WMA
|
20 |
+
|
21 |
+
ट्
|
22 |
+
८
|
23 |
+
|
24 |
+
स एवायं मया तेऽद्य योग: प्रोक्त: पुरातन:।
|
25 |
+
WHS A AA चेति Wa ह्येतदुत्तमम् । । ३ । ।
|
26 |
+
|
27 |
+
तू मेरा भक्त six ra wer है, इसलिये वही ae
|
28 |
+
él उत्तम रहस्य है Had गुप्त रखने योग्य fava
|
29 |
+
1S ।। ह ।।
|
30 |
+
|
31 |
+
The same ancient Yoga has this day been
|
32 |
+
imparted to you by Me, because you are My
|
33 |
+
devotee and friend; and also because this is a
|
34 |
+
supreme secret.
|
35 |
+
|
36 |
+
ee
|
37 |
+
|
38 |
+
= SS
|
39 |
+
age अध्याय
|
40 |
+
|
41 |
+
WSS
|
42 |
+
|
43 |
+
=
|
44 |
+
|
45 |
+
=>
|
46 |
+
|
47 |
+
LYN Ss
|
48 |
+
|
49 |
+
LE
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ZS
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Uy
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1 |
+
See 2 ज् FSS
|
2 |
+
WW प्रसंग --उपर्युक्त वर्णन से मनुष्य को स्वाभाविक at यह शंका हो सकती है कि भगवान् श्रीकृष्ण ।
|
3 |
+
| dt अभी द्वापरयुग में प्रकट gut और a देव, मनु एवं इक्ष्वाकु बहुत पहले हो चुके हैं; तब इन्होंने इस
|
4 |
+
| योग का उपदेश सूर्य के प्रति Se Rar? अतएव इसके समाधान के साथ ही भगवान् के अवतार-तत्त्व
|
5 |
+
| को act प्रकार समझने की इच्छा से अर्जुन Yor F—
|
6 |
+
|
7 |
+
Oe
|
8 |
+
AWS WL
|
9 |
+
|
10 |
+
HAs त्वमादौ प्रोक्तवानिति । । st
|
11 |
+
|
12 |
+
३ अर्जुन बोले--आपका जन्म a अर्वाचीन--अभी
|
13 |
+
(| art कहा था ।। ४ ।।
|
14 |
+
|
15 |
+
Arjuna said : You are of recent origin, while
|
16 |
+
the birth of Vivasvan dates back to remote
|
17 |
+
antiquity. How, then, am I to believe that
|
18 |
+
/| You taught this Yoga at the beginning of
|
19 |
+
| creations? (4)
|
20 |
+
|
21 |
+
// प्रसंग --इस प्रकार APA के पूछने पर अपने अवतार-तत्त्व का रहस्य समझाने के लिये अपनी सर्वज्ञता
|
22 |
+
,)। प्रकट करते EL भगवान् Het F—
|
23 |
+
|
24 |
+
श्रीभगवानुवाच
|
25 |
+
बहूनि A व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
|
26 |
+
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप । YI
|
27 |
+
ळ्ळिर्व्य र्व्यद्गु\ळै LW Yj
|
28 |
+
103 श्रीमद्भगवद्गीता
|
29 |
+
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Wy
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1 |
+
किंतु मैं जानता € ।। ५ ।।
|
2 |
+
Sri Bhagavan said ; Arjuna, you and I have
|
3 |
+
passed through many births, I remember
|
4 |
+
|
5 |
+
them all; you do not remember, O chastiser ||
|
6 |
+
of foes. (5) |
|
7 |
+
|
8 |
+
प्रसंग --भगवान् के मुख से यह बात सुनकर कि अव तक मेरे बहुत-से जन्म हो चुके B, यह जानने | .
|
9 |
+
की इच्छा होती है कि आपका जन्म किस प्रकार होता है और आपके जन्म में तथा अन्य लोगा के जन्म |
|
10 |
+
# क्या भेद है । अतएव इस बात को समञझझाने के लिये भगवान् अपने जन्मका तत्त्व बतलाते है । . .
|
11 |
+
|
12 |
+
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
|
13 |
+
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया । । ६ । ।
|
14 |
+
|
15 |
+
मेअजन्माओरअचिनाशीस्यरूपहोतेह्रुएभीतथा
|
16 |
+
|
17 |
+
को अधीन`करके अपनी योगमाम्ला से प्रकट होता
|
18 |
+
ह ।। ६ ।।
|
19 |
+
|
20 |
+
Though birthless and deathless, and the |
|
21 |
+
|
22 |
+
Lord of all beings, I manifest Myself through । ।
|
23 |
+
My own Yogamaya (divine potency), keeping ——
|
24 |
+
My Nature (Prakrti) under control. (6) =
|
25 |
+
|
26 |
+
se ree ye से उनकं जन्म का तत्य सुनने पर यह जिजञासा झेती है कि |
|
27 |
+
|
28 |
+
आप किस-किस समय और किन-किन कारणो से इस प्रकार अवतार धारण करते Sl इस पर भगवान् | | न्नू_दुं,’,_.,
|
29 |
+
दो श्लोकां मै अपने अवतार के अवंसर, हेतु और उद्देश्य बतलाते हैं-- NYA
|
30 |
+
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1 |
+
G
|
2 |
+
y
|
3 |
+
|
4 |
+
aS
|
5 |
+
।
|
6 |
+
॥
|
7 |
+
|
8 |
+
BEX
|
9 |
+
|
10 |
+
SS wy
|
11 |
+
|
12 |
+
~
|
13 |
+
|
14 |
+
७७९
|
15 |
+
|
16 |
+
७२० S
|
17 |
+
|
18 |
+
Bx
|
19 |
+
|
20 |
+
Wy
|
21 |
+
८
|
22 |
+
|
23 |
+
=
|
24 |
+
SS
|
25 |
+
Sw
|
26 |
+
|
27 |
+
८ iy 4,
|
28 |
+
|
29 |
+
y
|
30 |
+
|
31 |
+
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। 91
|
32 |
+
|
33 |
+
हे भारत ! जब-जब धर्म aT हानि और अधर्म की
|
34 |
+
अर्थात् साकार रूप से लोगो के सम्मुख whe होता
|
35 |
+
alle ।।
|
36 |
+
|
37 |
+
Arjuna, whenever righteousness is on the
|
38 |
+
|
39 |
+
decline, and unrighteousness is in the
|
40 |
+
ascendant, then I body Myself forth. (7)
|
41 |
+
|
42 |
+
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
|
43 |
+
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि Ft युगे।।<॥।
|
44 |
+
|
45 |
+
साधु FSU का Sa करने के लिये, पाप-कर्म HET
|
46 |
+
वालो का विनाश करने के लिये और धर्म की अच्छी
|
47 |
+
तरह से स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट SAT
|
48 |
+
करता € llc ।।
|
49 |
+
|
50 |
+
For the protection of the virtuous, for the
|
51 |
+
extirpation of evil-doers, and for establish-
|
52 |
+
|
53 |
+
ing Dharma (righteousness) on a firm footting,
|
54 |
+
I born from age to age.
|
55 |
+
|
56 |
+
%,%222; 22 SLL. yyy ye Ss ESS
|
57 |
+
|
58 |
+
५222
|
59 |
+
६९९
|
60 |
+
|
61 |
+
| KO: 27 ’,॰’टं॰‘ < - …
|
62 |
+
|
63 |
+
WS
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64 |
+
|
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+
WSS
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|
|
|
1 |
+
प्रसंग --इस प्रकार भगवान् अपने दिव्य जन्मों के अवसर, हेतु और उद्देश्य का वर्णन करके अब .
|
2 |
+
उन wait की और उनमें a जाने वाले कर्मो at दिव्यता को aca से जानने का फल बतलाते F—
|
3 |
+
|
4 |
+
wa कर्म च मे दिव्यमेवं यो ata तत्त्वत: |
|
5 |
+
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन । । ६ । ।
|
6 |
+
|
7 |
+
SK अलौकिक हैं--इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान
|
8 |
+
|
9 |
+
aa 8, बह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त
|
10 |
+
|
11 |
+
नहीं होता, किंतु मुझे Ef प्राप्त होता है ।। ६ ।।
|
12 |
+
Arjuna, My birth and activities are divine.
|
13 |
+
|
14 |
+
he who knows this in reality is not reborn on
|
15 |
+
leaving his body, but comes to Me. (9)
|
16 |
+
|
17 |
+
प्रसंग -इस प्रकार भगवान् के जन्म और कर्मो को aca से दिव्य समझ लेने का जो फल बतलाया
|
18 |
+
wart, वह अनादि परम्परा से चला आ रहा है--इस बात को स्पष्ट करने के लिये भगवान् Hed F—
|
19 |
+
|
20 |
+
वीतारागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता: |
|
21 |
+
|
22 |
+
बहवो ज्ञानतपसा GAT मद्भावमागता: । । १०।।
|
23 |
+
|
24 |
+
Ged भी, जिनके wT, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट .
|
25 |
+
हो गये थे और जो मुझ में अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते
|
26 |
+
x, ऐसे मेरे ona रहने वाले बहुत से भक्त उपुर्यक्त
|
27 |
+
ज्ञानरूप तपसे पवित्र होकर AL स्वरूप हो प्राप्त हो TH
|
28 |
+
ह ।। १5 ।।
|
29 |
+
|
30 |
+
Completely rid of passion, fear and anger,
|
31 |
+
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|
|
|
|
1 |
+
(ii) The Lord alone is to be worshipped, and that only by doings
|
2 |
+
one’s own duties. Any other worship or duty should be
|
3 |
+
abandoned.
|
4 |
+
|
5 |
+
(iii) Devotion to the Lord is the mean to which all the rest is
|
6 |
+
subservient;
|
7 |
+
|
8 |
+
(iv) The Lord is far different from the whole world and every-
|
9 |
+
thing is under His control. He is the Supreme being, perfect
|
10 |
+
in every excellence.
|
11 |
+
|
12 |
+
(v) The human being is obliged to perform his duties without
|
13 |
+
hoping for the fruits which he may get out of his perfor-
|
14 |
+
mance.
|
15 |
+
|
16 |
+
‘Srimad Bhagavad Gita’ has been translated into several
|
17 |
+
languages, and each translation has been reviewed and com-
|
18 |
+
mented in different ways. But this edition of Bhagavad Gita has
|
19 |
+
its own distinction. It contains the original sanskrit text (shloka
|
20 |
+
by shloka) with its translation into Hindi as also in English. We
|
21 |
+
hope that this edition will enlighton not only those readers who
|
22 |
+
read it from religious view point, but also to those who want to
|
23 |
+
study this great literary work.
|
24 |
+
|
25 |
+
It has been brought out in comparatively bolder type so that
|
26 |
+
it can be easily read by readers of all ages.
|
27 |
+
|
28 |
+
New Delhi.
|
29 |
+
August 11, 1993 —publishers.
|
30 |
+
(Birth day of Lord Krishna)
|
31 |
+
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|
|
|
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|
|
|
|
|
1 |
+
wholly absorbed in Me, depending on Me,
|
2 |
+
and purified by the penance of wisdom;
|
3 |
+
many have become one with Me even in the
|
4 |
+
past. (10)
|
5 |
+
|
6 |
+
प्रसंग --पूर्वं श्लोकों मैं भगवान् ने यह बात कही कि AY जन्म और कर्मो को जो Rex wae लेते
|
7 |
+
|
8 |
+
हं, उन area set को मेर प्राप्ति हो जाती है; इस पर यह जिज्ञासा होती है कि उनको आप es ।
|
9 |
+
प्रकार और किस रूप में मिलते है ? इस पर कहते है -- ४६
|
10 |
+
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | ©,
|
11 |
+
मम amiga agen: पार्थ सर्वश: । । ११।।
|
12 |
+
|
13 |
+
सब प्रकार से At st art का अनुसरण aa
|
14 |
+
हैं. 1199 ।।
|
15 |
+
Arjuna, howsoever men seek Me; even so
|
16 |
+
|
17 |
+
do I approach them; for all men follow My
|
18 |
+
path in every way. (11)
|
19 |
+
|
20 |
+
प्रसंग --यदि यह बात है, तो फिर लोग भगवान् को न भजकर अन्य देवताओं की उपासना at
|
21 |
+
करते है ? इस पर कहते हैं--
|
22 |
+
|
23 |
+
काङ्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता: |
|
24 |
+
क्षिप्रं fe मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा । । ५२।।
|
25 |
+
|
26 |
+
WSS —
|
27 |
+
|
28 |
+
ह
|
29 |
+
|
30 |
+
८ =
|
31 |
+
१४
|
32 |
+
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|
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|
|
|
|
|
|
|
|
|
1 |
+
ma से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती
|
2 |
+
S19 Il
|
3 |
+
|
4 |
+
In this world of human beings; men seeking
|
5 |
+
the fruition of their activities worship the
|
6 |
+
gods; for success born of actions follow
|
7 |
+
quickly. (12)
|
8 |
+
|
9 |
+
प्रसंग —at श्लोक में भगवान् के दिव्य जन्म और कर्मो को तत्त्व से जानने का फल भगवान् की
|
10 |
+
प्राप्ति बतलाया गया । उसके पूर्व भगवान् के जन्म की दिव्यता का विषय तो भलीभांति समझाया गया,
|
11 |
+
Pig भगवान् के कर्मो की दिव्यता का विषय स्पष्ट नहीं Eat; इसलिये अब भगवान् दो श्लोकों में अपने
|
12 |
+
सृष्टि-रचनादि कर्मो में कर्तापन, विषमता और स्पृहाका अभाव दिखलाकर उन कर्मो की दिव्यता का विषय
|
13 |
+
wad हैं--
|
14 |
+
|
15 |
+
aged मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
|
16 |
+
तस्य कर्तारमपि मां विद्धूयकर्तारमव्ययम् । । १२।। .
|
17 |
+
|
18 |
+
ब्राह्मण, क्षत्रिय, da AK शूद्र--इन चार वर्णो का
|
19 |
+
समूह, गुण और कर्मो के विभागपूर्वक At द्वारा रचा
|
20 |
+
|
21 |
+
AO
|
22 |
+
|
23 |
+
ES
|
24 |
+
|
25 |
+
WN
|
26 |
+
|
27 |
+
LEE
|
28 |
+
SS
|
29 |
+
|
30 |
+
S
|
31 |
+
|
32 |
+
—
|
33 |
+
|
34 |
+
=
|
35 |
+
|
36 |
+
LE
|
37 |
+
|
38 |
+
3९2
|
39 |
+
द्
|
40 |
+
ट्
|
41 |
+
|
42 |
+
KSI
|
43 |
+
|
44 |
+
होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव H
|
45 |
+
अकर्ता ही जान ।। १३ ।।
|
46 |
+
|
47 |
+
The four orders of society (the Brahmana,
|
48 |
+
|
49 |
+
the Ksatriya, the Vaisya and the Sudra) were
|
50 |
+
|
51 |
+
created by Me classifying them according to |
|
52 |
+
|
53 |
+
the mode of Prakrti predominant in each and
|
54 |
+
apportioning corresponding duties to them;
|
55 |
+
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|
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1 |
+
१
|
2 |
+
|
3 |
+
though the author of this creation, know Me,
|
4 |
+
the immortal Lord, to be a non-doer, (13)
|
5 |
+
|
6 |
+
TAT Bai fergie a A aha eer |
|
7 |
+
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते 11981)
|
8 |
+
|
9 |
+
लिप्त नहीं करते--इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता
|
10 |
+
है, वह भी कर्मो से नहीं Fear ।। १४ ।।
|
11 |
+
|
12 |
+
Since I have no craving for the fruit of
|
13 |
+
acions; actions do not contaminate Me, Even
|
14 |
+
he who thus knows Me in reality is not bound
|
15 |
+
by actions. (14)
|
16 |
+
|
17 |
+
ah
|
18 |
+
|
19 |
+
FET RE STE TAT, ATA Ht A Rarer GA rer cee OAT at Heer ROT,
|
20 |
+
Oe FAG Gout & Sarererges eel sare Preserarea & af at & fet arabs at area 28
|
21 |
+
१८
|
22 |
+
|
23 |
+
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि:।
|
24 |
+
|
25 |
+
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम् । । १४ ।।
|
26 |
+
पूर्वकाल के मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर हीं
|
27 |
+
© | कर्म किये हैं । इसलिये तू भी पूर्वजो are सदा से किये
|
28 |
+
जाने वाले कर्मो को et कर ।। १५ ।।
|
29 |
+
|
30 |
+
।। Having known thus, action was performed
|
31 |
+
-| even by the ancient seekers for liberation;
|
32 |
+
|
33 |
+
109 श्रीमद्भगवद्गीता
|
34 |
+
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1 |
+
प्}181॰9£01'8, you also perform such action as
|
2 |
+
have been performed by the ancients from
|
3 |
+
the beginning of time. (15)
|
4 |
+
|
5 |
+
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: |
|
6 |
+
तत्ते HA प्रवक्ष्यामि यज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽंशुभात् । । १६।।
|
7 |
+
|
8 |
+
कर्म क्या है ? AK अकर्म क्या है ?--इस प्रकार
|
9 |
+
इसका निर्णय करने में बुद्धिमान् पुरुष भी मोहित हो
|
10 |
+
समझाकर hen, जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात्
|
11 |
+
कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा ।। १६ ।।
|
12 |
+
|
13 |
+
What is action and what is inaction? Even
|
14 |
+
men of intelligence are puzzled over this
|
15 |
+
question. Therefore, I shall expound to you
|
16 |
+
the truth about action, knowing which you
|
17 |
+
will be freed from its evil effect (binding
|
18 |
+
nature). (16)
|
19 |
+
|
20 |
+
प्रसंग --यहाँ स्वभावत: मनुष्य मान सकता है कि शासत्रविहित करने ara कर्मो का नाम कर्म है
|
21 |
+
और क्रियाओं का स्वरूप से त्याग ax देना ही अकर्म है--इसमें मोहित होने की कौन-सी बात है और
|
22 |
+
Fe जानना क्या है ? किंतु इतना जान लेने मात्र से ही वास्तविक कर्म-अकर्म का निर्णय नहीं हो सकता,
|
23 |
+
कर्मो के तत्त्व को भलीभांति समझने Sl आवश्यकता है । इस भाव को स्पष्ट करने के लिये भगवान् Hed
|
24 |
+
|
25 |
+
+
|
26 |
+
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण: |
|
27 |
+
अकर्मणश्यवोद्घव्यगहनाकर्मणोगति।।भ्प्र।।
|
28 |
+
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1 |
+
वत्र्र्मका स्वरूप भी जानना चाहिये और अकर्म का |
|
2 |
+
स्वरूप भी जानना चाहिये; तथा निषिद्ध SH का स्वरूप
|
3 |
+
भी जानना चाहिए: क्योंकि at ar गति गहन
|
4 |
+
है 1199 ।।
|
5 |
+
|
6 |
+
The truth about action must be known and
|
7 |
+
the ruth of inaction also must be known; even
|
8 |
+
so the truth about prohibited action must be
|
9 |
+
|
10 |
+
known. For mysterious are the ways of
|
11 |
+
action. (17)
|
12 |
+
|
13 |
+
प्रसंग --इस प्रकार श्रोता के अन्त:करण में रुचि GN wal उत्पन्न करने के लिये कर्मतत्त्व को et
|
14 |
+
एवं उसका जानना आवश्यक बतलाकर अब अपनी often के अनुसार भगवान् कर्मका तत्त्व asd
|
15 |
+
|
16 |
+
हैं--
|
17 |
+
कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।
|
18 |
+
|
19 |
+
a बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् | । १८ ।।
|
20 |
+
|
21 |
+
जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म
|
22 |
+
में कर्म देखता है, de मनुष्यों में बुद्धिमान् है और वह
|
23 |
+
योगी समस्त कर्मो को करने बाला है ।। १८ ।।
|
24 |
+
|
25 |
+
He who sees inaction in action, and action
|
26 |
+
in inaction, is wise among men; he is a yogi,
|
27 |
+
who has performed all action. (18)
|
28 |
+
|
29 |
+
प्रसंग --इस प्रकार कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म दर्शन का महत्त्व बतलाकरं अब oe श्लोक
|
30 |
+
में भिन्न-भिन्न शैली से उपर्युक्त कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्मं दर्शनपूर्वक कर्म करने art ra और
|
31 |
+
साधक Tor की असंगता का वर्णन करके उस विषय को स्पष्ट करते F—
|
32 |
+
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1 |
+
= =. og Sy SSS ३९ = SR = SANS
|
2 |
+
Fi ह US aS ॐ a >
|
3 |
+
|
4 |
+
Le
|
5 |
+
|
6 |
+
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा: । । १६।।
|
7 |
+
जिसके सम्पूर्ण शासत्रसम्मत कर्म fear कामना और
|
8 |
+
संकल्प के ea हैं aa जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप
|
9 |
+
|
10 |
+
अग्नि के द्वारा भस्म हो गये हैं, उस महापुरुष को
|
11 |
+
ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं ।। १६ ।।
|
12 |
+
|
13 |
+
Even the wise call him a sage, whose
|
14 |
+
undertaking are all free from desire and thoughts
|
15 |
+
of the world, and whose actions are burnt up
|
16 |
+
by the fire of wisdom. (19)
|
17 |
+
|
18 |
+
त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रय: |
|
19 |
+
|
20 |
+
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किचित्करोति a: । । २०।।
|
21 |
+
|
22 |
+
जो पुरुष समस्त Hal में और उनके Hat में Hake
|
23 |
+
का सर्वथा त्याग Hh संसार के आश्रय से रहित हो
|
24 |
+
Ta है और परमात्मा में नित्यतृप्त है, ae कर्मो में
|
25 |
+
Aerated बर्तता sar भी वास्तव में He भी नहीं
|
26 |
+
करता ।। २० ।।
|
27 |
+
|
28 |
+
He who, having totally given up attach-
|
29 |
+
ment to actions and their fruit, no longer
|
30 |
+
depends on the world, and is ever satisfied,
|
31 |
+
does nothing at all, though fully engaged in
|
32 |
+
action.
|
33 |
+
|
34 |
+
SSeS =
|
35 |
+
|
36 |
+
1@)-.
|
37 |
+
|
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+
0 /
|
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+
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1 |
+
GH.
|
2 |
+
|
3 |
+
हैरान्र aa
|
4 |
+
२९२ — n,n
|
5 |
+
२० << प
|
6 |
+
|
7 |
+
4 7 #
|
8 |
+
तॆ २ ) ।
|
9 |
+
५३१
|
10 |
+
|
11 |
+
१ #
|
12 |
+
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|
13 |
+
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|
14 |
+
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|
15 |
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|
16 |
+
|
17 |
+
। =< न .
|
18 |
+
|
19 |
+
tip
|
20 |
+
|
21 |
+
~« TSS
|
22 |
+
|
23 |
+
PURITY
|
24 |
+
९६६४ :.
|
25 |
+
|
26 |
+
गयी कि ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार के बिना
|
27 |
+
केवल त्लोकसंग्रह के ford शासत्रसम्मत यज्ञ, दान और तप आदि समस्त कर्म करता EST भी ज्ञानी पुरुष
|
28 |
+
वास्तव 4 ae भी नहीं Hear! इसलिये ae कर्मबन्धन में नहीं पड्टता । इस पर यह प्रश्न उठता है कि
|
29 |
+
ज्ञानी को आदर्श मानकर ody प्रकार से कर्म करनेवाले साधक at नित्य-नैमित्तिकं आदि af का त्याग
|
30 |
+
नहीं करते, निष्कामभाव से wa प्रकार के शासत्रविहित कर्त्तव्य anf का अनुष्ठान करते ted है--इस कारण
|
31 |
+
वे किसी पाप के भागी नहीं बनते; fag जो साघक शासत्रविहित यज्ञ-दानादि कर्मो का अनुष्ठान न करके
|
32 |
+
केवल शरीर निर्वाह मात्र के लिये आवश्यक शौच-स्नान he खान-पान आदि कर्म ही करता है, ae at
|
33 |
+
पाप का भागी eter er | ऐसी शंका की निवृत्ति के लिये भगवान् कहते है--
|
34 |
+
|
35 |
+
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह: |
|
36 |
+
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् । । २१।।
|
37 |
+
|
38 |
+
जीता Sar है और जिसने समस्त APT Hr सामग्री का
|
39 |
+
परित्याग ax fear है, Car आशारहित पुरुष केवल
|
40 |
+
शरीर-सम्बन्धी कर्म HCA SAT HT पाप को नहीं प्राप्त
|
41 |
+
होता ।। २१ ।।
|
42 |
+
|
43 |
+
Having subdued his mind and body, and
|
44 |
+
given up all objects of enjoyment, and free
|
45 |
+
from craving; he who performs sheer bodily
|
46 |
+
actions, does not incur sin. (21)
|
47 |
+
|
48 |
+
प्रसंग --उपर्युक्त श्लोकों में यह बात सिद्ध की गयी कि परमात्मा को प्राप्त सिद्ध Terres का तो
|
49 |
+
कर्म करने या न करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा ज्ञानयोग के साधक का ग्रहण SA त्याग शासत्रसम्मत,
|
50 |
+
आसक्तिरहित और ममतारहित erat है; अत: वे कर्म करते हुए या उनका एयाग करते हुए--सभी अवस्थाओं
|
51 |
+
4 कर्मबन्घन से aden मुक्त Fl अब भगवान् यह बात दिखलाते & कि कर्म मैं अकर्मदर्शन पूर्वक कर्म
|
52 |
+
करने वाला कर्मयोगी tt asters में नहीं पडता--
|
53 |
+
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1 |
+
सम.सिद्बावसिदौचकृज्यापिननिवघ्यते।।सा।
|
2 |
+
|
3 |
+
जिसमें get का सर्वथा अभाव हो गया है, जो
|
4 |
+
हर्ष-शोक आदि a-al से सर्वथा अतीत हो war
|
5 |
+
है--ऐसा fafa aie असिद्धि में aa रहने वाला
|
6 |
+
कर्मयोगी कर्म करता Sar भी उनसे नहीं SAT ।। २२ ।।
|
7 |
+
|
8 |
+
The Karmayogi, who is contented with
|
9 |
+
whatever is got unsought, is free from jealousy
|
10 |
+
and has transcended all pairs of opposites
|
11 |
+
(like joy and grief), and is balanced in success
|
12 |
+
and failure, is not bound by his action. (22)
|
13 |
+
|
14 |
+
प्रसंग —aet यह प्रश्न उठता है किं उपर्युक्त प्रकार से किये हुए कर्म बन्धन Bg नहीं बनते, इतनी
|
15 |
+
& aa है या उनका और भी Ge महत्व है । इस पर कहते है--
|
16 |
+
|
17 |
+
गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस: |
|
18 |
+
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते । । २३।।
|
19 |
+
|
20 |
+
जिसकी arate सर्वथा ase हो गयी है, जो
|
21 |
+
देहाभिमान six ममता से ced हो गया हडै, जिसका
|
22 |
+
चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है--ऐसे
|
23 |
+
केवल यज्ञ सम्पादन के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के
|
24 |
+
न्धांकर्मभलीमाँतियिलीनहोजातेहैं ।। २३ ।।
|
25 |
+
|
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|
1 |
+
।
|
2 |
+
6 ।।
|
3 |
+
॥
|
4 |
+
|
5 |
+
।।
|
6 |
+
।
|
7 |
+
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|
8 |
+
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|
9 |
+
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|
10 |
+
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|
11 |
+
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|
12 |
+
छृ/
|
13 |
+
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|
14 |
+
|
15 |
+
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|
16 |
+
|
17 |
+
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|
18 |
+
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|
19 |
+
|
20 |
+
३३ i w=
|
21 |
+
a oe OE
|
22 |
+
|
23 |
+
८२ । —~
|
24 |
+
॥ Nd J doe
|
25 |
+
SS
|
26 |
+
|
27 |
+
# ह- ९ ॰॰ १२९० २ १ स ८८ 6
|
28 |
+
a हनिसिरस्दिर ण QO eee LA eg FPO?
|
29 |
+
|
30 |
+
attachment, who has no identification with
|
31 |
+
the body and does not claim it as his own,
|
32 |
+
whose mind is established in the Knowledge
|
33 |
+
of Self and who works merely for the sake of
|
34 |
+
sacrifice. । (23)
|
35 |
+
|
36 |
+
प्रसंग --पूर्वं श्लोक Fae बात कही गयी कि यज्ञ के fea कर्म करने वाले Gor के समस्त कर्म
|
37 |
+
feet हो one हैं | aet केवल अग्नि में हविका cay करना हीं यज्ञ है और उसके सम्पादन करने के
|
38 |
+
fered की जाने वाली क्रिया ह्री यज्ञ के लिये कर्म करना है, इतनी ह्री बात नहीं है; वर्ण, आश्रम, स्वभाव
|
39 |
+
और परिस्थिति के अनुसार जिसका जो कर्तव्य है; वही उसके लिये ag है और उसका पालन करने के
|
40 |
+
लिये आवश्यक क्रियाओं का Parl बुद्धि से लोकसंग्रहार्थ करना ही उस यज्ञ के ford कर्म करना है--इसी
|
41 |
+
भावको सुस्पष्ट HCA के लिये अब भगवान् सात श्लोकों में भिन्न-भिन्न योगियों द्वारा किये जाने वाले परमात्मा
|
42 |
+
की प्राप्ति के साधन रूप शाख्रविहितं कर्तव्य-कर्मो का विभित्न ast के नाम से वर्णन करते हैं--
|
43 |
+
|
44 |
+
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा FAT |
|
45 |
+
wea तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना । । २४।।
|
46 |
+
|
47 |
+
जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात् स्रुवा आदि भी ब्रह्म है
|
48 |
+
और हवन किये जाने ara द्रव्य भी ब्रह्म हैं तथा
|
49 |
+
ब्रह्मरूप Ha के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना
|
50 |
+
eq far भी ब्रह्म है--उस ब्रह्म कर्म में स्थितं रहने
|
51 |
+
वाले योगी art प्राप्त किये जाने ara we भी ब्रह्म
|
52 |
+
ae ।। २४ ।।
|
53 |
+
|
54 |
+
In the practice of seeing Brahma every-
|
55 |
+
where as a form of sacrifice Brahma is the
|
56 |
+
ladle (with which the oblation is poured
|
57 |
+
into the fire, etc.,); Brahma, again, is the
|
58 |
+
oblation; Brahma is the fire, Brahma itself
|
59 |
+
|
60 |
+
४
|
61 |
+
= vAN. > ल् bal ८2 । ।
|
62 |
+
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1 |
+
=~ Ss ss -
|
2 |
+
भू t= = ट
|
3 |
+
रु ८८६८ ६
|
4 |
+
|
5 |
+
the sacrificer, and so B a itself consti-
|
6 |
+
tutes the act of pouring the oblation into the
|
7 |
+
fire. And finally Brahma is the goal to be
|
8 |
+
reached by him who is absorbed in Brahma as
|
9 |
+
the act of such sacrifice. (24)
|
10 |
+
|
11 |
+
wet 5 We we Bre a wohE BS ora aT sees A Za Gra BH UT wT
|
12 |
+
OR आत्मा-परमात्मा के अभेददर्शन रूप यज्ञ का वर्णन करते F—
|
13 |
+
|
14 |
+
दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते।
|
15 |
+
|
16 |
+
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं गयज्ञेनैवोपजुह्मति । । २५।।
|
17 |
+
दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का St
|
18 |
+
AHA अनुष्ठान किया करते हैं SR Seq योगीजन
|
19 |
+
परब्रह्म परमात्मा रूप afta में ate दर्शन रूप यज्ञ
|
20 |
+
|
21 |
+
के द्वारा ही आत्म रूप यज्ञ का हवन किया करते
|
22 |
+
हैं ।। २५ Il
|
23 |
+
|
24 |
+
Other yogis duly offer sacrifice only in
|
25 |
+
the shape of worship to gods. Others pour
|
26 |
+
into the fire of Brahma the very sacrifice in
|
27 |
+
the shape of the self through the sacrifice
|
28 |
+
‘known as the perception of identity. (25)
|
29 |
+
|
30 |
+
प्रसंग ~-इस प्रकार Saas और अभेददर्शन रूप यज्ञ का वर्णन करने के अनन्तर अब इन्द्रिय संयम
|
31 |
+
रूप ay का और faa हवन रूप का वर्णन करते F—
|
32 |
+
|
33 |
+
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु Zale |
|
34 |
+
शब्दादीन्विषयानन्य इन्दियाग्निषु
|
35 |
+
|
36 |
+
२
|
37 |
+
Br :
|
38 |
+
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1 |
+
श्रींमात्मन्नैअर्जुनकोनिमित्तक्ताकासश्लाक्खिकोश्रौगौताकंप्तामेंजोष्णाण्यंश
|
2 |
+
Rar डै, ae अघ्याय उसकी अवतारणा के रूप में है । get Set ओर के प्रधान-प्रधान Ararat के नाम
|
3 |
+
क्खिणौर्कगामुखाक्याअर्जुनर्कदन्यृनक्शकीआर्शकाप्तेउत्पग्पोस्फीवळ्ळिकास्फीध्।
|
4 |
+
इसलिये इसका नाम `अर्जुन-विषाद-योग` ven गया है।
|
5 |
+
|
6 |
+
प्रसंग — पाण्डवाँ के राजसूय यज्ञ Ft उनके महान् ऐश्वर्य को देखकर दुर्योधन के मन मॆ ast भारी
|
7 |
+
जलन पैदा हो गयी ate उन्होंने शकुनि आदि A सम्मति से Gor खेलने के लिए युधिष्ठिर को बुलाया
|
8 |
+
dic wa से उनको हराकर उनका सर्वस्व हर लिया । ora में यह निश्चय gar कि युधिष्ठिरादि otet
|
9 |
+
ong द्रौपदी-सहित बारह वर्ष मै वन मै रहें और एक साल छिपकर रहें: इस प्रकार तेहर वर्ष तक समस्त
|
10 |
+
राज्यपरढुयोंफ्नफाअक्खिरठेओरपाण्डयोंकंएकसालफेफ्याफाभेढनखुतक्तातो
|
11 |
+
age af के बाद पाण्डवाँ का wea Se cher Rear जाय | इस निर्णय के अनुसार ae साल बिताने के
|
12 |
+
बाद जव पाण्डवां ने अपना राज्य वापस माँगा तब दुर्योधन ने साफ इन्कार कर दिया । तब SPT ओर
|
13 |
+
a युद्ध की तैयारी होने aT
|
14 |
+
|
15 |
+
भगवान् श्रीकृष्ण को रण-निमन्त्रण देने के लिये दुर्योधन Ge अर्जुन द्वारका पहुँचे | -भगवान् अपने
|
16 |
+
भवन att रहे थे । दुर्योघन उनके सिरहाने एक मूल्यवान् आसन पर जा बैठे और अर्जुन et wre जोड्कर
|
17 |
+
नम्रता के साथ SAS ait के सामने खटड्टे हो गये । जागते ही श्रीकृष्ण ने अपने सामने अर्जुन को देखा
|
18 |
+
aie फिर पीछे A ओर मुड्कर देखने पर सिरहाने की ओर बैठे ee दुर्योधन दीख VS । भगवान् श्रीकृष्ण
|
19 |
+
ने Sat का स्वागत-सत्कार किया ote उनके आने का कारण JT | तब दुर्योधन ने कहा--`मुझमॆ और
|
20 |
+
अर्जुनमेंआक्काएऴ्साहीप्नेमदैओरत्मद्वौनोंहोंआपफेसंर्यंघीध्;परंतुक्याकंपास्थाइलेथअम्पा
|
21 |
+
रृ,शोफ्यामेंक्काव्राफ्हींप्तान्धांमेंश्रेष्ठओय्र्व्यहैं,श्यतिषॆस्यांमॆरीध्रे
|
22 |
+
सहायता करनी चाहिये | भगवान् ने कहा--नि:सन्देह, आप पहले आये हैं; परंतु A पहले अर्जुन को
|
23 |
+
& देखा है । मैं दो प्रकार से सहायता SST! एक ओर AD अत्यन्त बलशालिनी नारायणी-सेना WA
|
24 |
+
और दूसरी GH, युद्ध न करने का प्रण करके, अकेला रहूंगा, मै शसत्र का प्रयोग नहीं केगा । अर्जुन !
|
25 |
+
धर्मानुसार पहले तुम्हारी gear of होनी चाहिये; अतएव etait में से जिसे पसंद करो, माँग लो |` अर्जुन
|
26 |
+
नेशत्रुनाशननश्याण्याश्रीवूत्माकौमाँधलिया।त्स्वदुर्मोघननेउनकौनस्यांश्वेनामाँपली।
|
27 |
+
|
28 |
+
war ने अर्जुन से पूछा--`अर्जुन ! जब मैं ga ��ी नहीं BST, तब तुमने क्या TAT
|
29 |
+
नारायणी-सेना को ats Rar और मुझ को स्वीकार लिया ?` अर्जुन ने कहा--`भगवन् ! आप अकेले ह
|
30 |
+
सबका नाश करने में समर्थं हँ, तव Sar लेकर क्या करता ?` भक्तवत्सल भगवान् ने अर्जुन के इच्छानुसार
|
31 |
+
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|
1 |
+
अन्ययोगीजन इन्दियोकोसयम
|
2 |
+
रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं और दूसरे योगी
|
3 |
+
art शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नियों
|
4 |
+
में हवन far करते हैं ।। २६ ।।
|
5 |
+
|
6 |
+
Others offer as sacrifice their senses of
|
7 |
+
hearing etc., into the fires of self-discipline.
|
8 |
+
Other yogis, again, offer sound and other
|
9 |
+
objects of perception into the fires of the
|
10 |
+
senses, (26)
|
11 |
+
|
12 |
+
प्रसंग --अब आत्मसंयमयोग रूप यज्ञ का वर्णन करते B—
|
13 |
+
|
14 |
+
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि art |
|
15 |
+
|
16 |
+
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्यति ज्ञानदीपिते । 12911
|
17 |
+
|
18 |
+
दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं को और orsit की
|
19 |
+
समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योग रूप अग्नि
|
20 |
+
में हवन किया करते हैं ।। २७ ।।
|
21 |
+
|
22 |
+
Others sacrifice all the functions of their
|
23 |
+
senses and the functions of the vital airs
|
24 |
+
into the fire of Yoga in the shape of self-
|
25 |
+
control, kindled by wisdom. (27)
|
26 |
+
|
27 |
+
WaT --इस प्रकार समाघियोग के साधन को यज्ञ का रूप देकर अब अगते श्लोक H द्रव्य यज्ञ,
|
28 |
+
तपोयन्ञ, योगयज्ञओरत्वाम्यायस्मक्कायज्ञकास्रंक्षेपमेंस्फीक्तोहैं-
|
29 |
+
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|
1 |
+
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता: । । २८।।
|
2 |
+
|
3 |
+
कई पुरुष द्रव्य सम्बन्धी यज्ञ करने वाले हैं, कितने
|
4 |
+
el तपस्यारूप यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ह्री
|
5 |
+
योग रूप यज्ञ करने वाले & और fest ही अहिंसादि
|
6 |
+
तीक्ष्ण aAdt से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्याय ST ज्ञान
|
7 |
+
यज्ञ करने वाले हैं ।। २८ ।।
|
8 |
+
|
9 |
+
Some perform sacrifice with material
|
10 |
+
possessions; some offer sacrifice in the shape
|
11 |
+
of austerities; others sacrifice through the
|
12 |
+
practice of Yoga; while some striving souls,
|
13 |
+
|
14 |
+
observing austere vows, perform sacrifice in
|
15 |
+
the shape of wisdom through the study of
|
16 |
+
sacred texts. (28)
|
17 |
+
|
18 |
+
प्रसंग --द्रव्ययज्ञादि चार प्रकार के ast का संक्षेप H वर्णन करके अब दो श्लोकों में प्राणायाम रूप
|
19 |
+
ast का वर्णन करते हुए सब प्रकार के यज्ञ करने वाले साघकों की प्रशंसा करते F—
|
20 |
+
|
21 |
+
अपाने Felt AT प्राणेऽपानं तथा परे।
|
22 |
+
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा: । । REI
|
23 |
+
amt नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु gate |
|
24 |
+
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा: | 1211
|
25 |
+
|
26 |
+
दूसरे feat ef योगी जन अपानवायु में प्राणवायु
|
27 |
+
|
28 |
+
चतुर्थ ञघ्याय 118
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|
1 |
+
अन्ययोगीजनप्राणवायुं
|
2 |
+
मॆअफावायुकोह्रवनकातेहैतथाअन्यक्तिनेही
|
3 |
+
नियमित Ae करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष
|
4 |
+
प्राण और अपान al गति को रोककर प्राणो को UVF
|
5 |
+
में el हवन far करते हैं । ये सभी साधक sit द्वारा
|
6 |
+
पापोकानाशकांदेनेक्योंऔरयज्ञोकोजाननेवाले
|
7 |
+
हैं ।। २६-३० II
|
8 |
+
|
9 |
+
Other yogis offer the act of exhalation
|
10 |
+
into that of inhalation even; so others, the
|
11 |
+
act of inhalation into that of exhalation.
|
12 |
+
There are still others given to the practice
|
13 |
+
of Pranayama (breath-control), who having
|
14 |
+
regulated their diet and controlled the processes
|
15 |
+
of exhalation and inhalation both pour their
|
16 |
+
vital airs into the vital airs themselves. All
|
17 |
+
these have their sins consumed away by sacrifice
|
18 |
+
and understand the meaning of sacrificial
|
19 |
+
worship. (29,30)
|
20 |
+
|
21 |
+
प्रसंग --इस प्रकार यज्ञ करने वाले साधकों की प्रशंसा करके अब उन ast के करने a होने वाले
|
22 |
+
लाभ और न करने से होने वाली हानि दिखलाकर भगवान् उपर्युक्त प्रकार से यज्ञ करने की आवश्यकता
|
23 |
+
का प्रतिपादन करते F—
|
24 |
+
|
25 |
+
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् |
|
26 |
+
न।यंलोकोऽस्त्ययज्ञस्यद्रुप्तोज्यय्कुस्नात्तम।।रॊ।।
|
27 |
+
|
28 |
+
j eS Ex LD ८222
|
29 |
+
|
30 |
+
119
|
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|
|
|
1 |
+
को प्राप्त होते हैं । और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिये
|
2 |
+
dl यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक
|
3 |
+
he सुखदायक हो सकता है ? 1139 ।।
|
4 |
+
|
5 |
+
Arjuna, Yogis who enjoy the nectar that
|
6 |
+
has been left over after the perfornance of a
|
7 |
+
serifice attain the eternal Brahma, To the
|
8 |
+
man who does not offer sacrifice, even this
|
9 |
+
world is not happy; how, then, can the other
|
10 |
+
world be happy? (31)
|
11 |
+
|
12 |
+
प्रसंग -सोलहवें श्लोक में भगवान् ने यह aret कही धी कि H तुम्हें वह कर्मतत्त्व बतलाऊँगा, जिसे
|
13 |
+
जानकर तुम अशुभ से मुक्त हो जाओगे | उस प्रतिज्ञा के अनुसार ores श्लोक से set TH उस कर्मतत्त्व
|
14 |
+
का वर्णन करके अब उसका उपसंहार Bat F—
|
15 |
+
|
16 |
+
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
|
17 |
+
कर्मजान्विद्धि तान्सवनिवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे । । ३२।।
|
18 |
+
|
19 |
+
इसी प्रकार SIX HT बहुत तरह के Gat वेद HT वाणी
|
20 |
+
में विस्तार से He WA हैं । उन सब को TAM, Shea
|
21 |
+
AK शरीर की क्रिया SRT GIA होने वाले AM, Fa
|
22 |
+
Tat तत्त्व से जानकर GG अनुष्ठान द्वारा तू
|
23 |
+
कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हो जायेगा ।। ३२ ।।
|
24 |
+
|
25 |
+
Many such forms of sacrifice have been
|
26 |
+
set forth in detail through the mouth of the
|
27 |
+
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|
|
|
|
|
|
1 |
+
Vedas; know them all as involving the action
|
2 |
+
of mind, senses and body. Thus knowing
|
3 |
+
the truth about them you shall be freed
|
4 |
+
from the bondage of action (through their
|
5 |
+
performance). (32)
|
6 |
+
|
7 |
+
प्रसंग — उपर्युक्त प्रकरण में भगवान् ने कई प्रकार के यज्ञां का वर्णन किया और ae बात भी कही
|
8 |
+
कि इनके सिवा sire भी बहुत-से ag ae-greit F बतलाये गये है; इसलिये aet ae जिज्ञांसा होती है
|
9 |
+
कि उन ast मै से कौन-सा यज्ञ श्रेष्ठ है । इस पर भगवान् कहते हैं--
|
10 |
+
|
11 |
+
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ञानयज्ञ WAT |
|
12 |
+
wa कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते । । ३३।।
|
13 |
+
|
14 |
+
हे परन्तप अर्जुन ! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ
|
15 |
+
अत्यन्त श्रेष्ठ है, Ta यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में
|
16 |
+
|
17 |
+
समाप्त हो जाते हैं ।। ३३ ।।
|
18 |
+
|
19 |
+
Arjuna, sacrifice through Knwoledge is
|
20 |
+
superior to sacrifice performed with material
|
21 |
+
things. For all actions without exception
|
22 |
+
culminate in Knowledge, O son of Kunti. (33)
|
23 |
+
|
24 |
+
प्रसंग --इस प्रकार ज्ञान यज्ञ की और उसके फलरूप ज्ञान की प्रशंसा करके अब भगवान् दो श्लोकों
|
25 |
+
में ज्ञान को प्राप्त करने के लिये अर्जुन को आज्ञा देते हुए उसकी प्राप्ति का art और उसका फल बतलाते
|
26 |
+
४
|
27 |
+
|
28 |
+
data प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
|
29 |
+
उपदेक्ष्यन्ति ते AA ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: । । ३४।।
|
30 |
+
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|
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|
1 |
+
3 42 क2>> OSS S777
|
2 |
+
|
3 |
+
८ र्ह
|
4 |
+
|
5 |
+
7
|
6 |
+
|
7 |
+
Saat Va करने से A कपट छोड्कर सरलतापूर्वक ङ्मुन्धिंटं
|
8 |
+
प्रश्न HA से वे परमात्मतत्त्व को AeA जानने वाले ट्टु/
|
9 |
+
ant Here gi sa aad aM a ste
|
10 |
+
|
11 |
+
करेंगे ।। ३४ ।।
|
12 |
+
|
13 |
+
Understand the true nature of that
|
14 |
+
Knowledge by approaching illumined soul. If
|
15 |
+
you prostrate at their feet, render them
|
16 |
+
service, and question them with an open and
|
17 |
+
guileless heart, those wise seers of Truth will
|
18 |
+
instruct you in that Knowledge. (34)
|
19 |
+
|
20 |
+
wae न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
|
21 |
+
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि । KI
|
22 |
+
जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं
|
23 |
+
प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन ! जिस ज्ञान के द्वारा तू सम्पूर्ण
|
24 |
+
|
25 |
+
भूतो को नि:शेष भाव से पहले अपने में और पीछे मुझ
|
26 |
+
सच्चिदानन्दघन परमात्मा में SET ।। ३५ ।। ।
|
27 |
+
|
28 |
+
Arjuna, when you_ have reached
|
29 |
+
enlightenment, ignorance will delude you no
|
30 |
+
more. In the light of that Knowledge you will
|
31 |
+
see the entire creation first within your own
|
32 |
+
self, and then in Me (the Oversoul). (35)
|
33 |
+
|
34 |
+
- IZ QDQ}q IW:
|
35 |
+
|
36 |
+
aged अध्याय 122
|
37 |
+
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1 |
+
/,’,- भि => / । - een: सि
|
2 |
+
|
3 |
+
—
|
4 |
+
|
5 |
+
प्रसंग ~-इस प्रकार गुरुजनों से तत्त्वज्ञान सीखने की विधि और उसका फल बतलाकर अब उसका
|
6 |
+
Hees बतलाते हैं--
|
7 |
+
|
8 |
+
अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
|
9 |
+
ad ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि । । ३६।।
|
10 |
+
|
11 |
+
यदि तू अन्य as पापियों से भी अधिक पाप करने
|
12 |
+
वाला है; तो भी तू ज्ञान-रूप नौका द्वारा नि:संदेह सम्पूर्णं
|
13 |
+
पाप-समुद्र से seats तर जायेगा ।। ३६ ।।
|
14 |
+
|
15 |
+
Even though you were the foulest of all
|
16 |
+
|
17 |
+
sinners, this Knowledge alone would carry
|
18 |
+
you, like a raft, across all your sin. (36)
|
19 |
+
|
20 |
+
प्रसंग -कोई भी दृष्टान्त परमार्थ विषय को पूर्ण रूप से नहीं aan सकता, उसके एक अंश को
|
21 |
+
ही समज्ञाने के fort उपयोगी होता है; अतएव पूर्व श्लोक मैं बतलाये हुए ज्ञान के महत्त्व को afta के
|
22 |
+
Gert से पुन: स्पष्ट करते हैं--
|
23 |
+
|
24 |
+
यथैधांसि समिद्घोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |
|
25 |
+
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा । । ३०।।
|
26 |
+
|
27 |
+
क्योंकि हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को
|
28 |
+
भस्ममय कर देता है, वैसे St ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्णं
|
29 |
+
कर्मो को भस्ममय कर देता है ।। ३७ ।।
|
30 |
+
|
31 |
+
न्न् =* ॐ: ८78 न द् ge ८८८ LAE Pa ane io ट ॥ ६८८ a 7
|
32 |
+
न र # LES । कक ॥ हं ae St] Cd SO mn । र्गि
|
33 |
+
FR i उ २ SINS र्व Ss. न सि २ २० ae SoS
|
34 |
+
*
|
35 |
+
|
36 |
+
For as the blazing fire turns the fuel to
|
37 |
+
ashes, Arjuna, even so the fire of Knwoledge
|
38 |
+
turns all actions to ashes. (37)
|
39 |
+
|
40 |
+
SRR,
|
41 |
+
|
42 |
+
भॊ ।
|
43 |
+
है
|
44 |
+
|
45 |
+
ee SS ee SS DE Ne SS
|
46 |
+
Las
|
47 |
+
|
48 |
+
123 श्रीमद्भगवद्गीता
|
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1 |
+
ENS SS
|
2 |
+
Uy Uy @xZ j 2
|
3 |
+
|
4 |
+
। प्रसंग --इस प्रकार aided श्लोक से यहाँ तक तत्त्वज्ञानी महापुरुषां at Gar आदि करके तत्त्वज्ञान
|
5 |
+
को प्राप्त करने के लिये He कर भगवान् ने उसके फल का वर्णन करते SU उसका माहात्म्य बतलाया।
|
6 |
+
इस पर ae जिज्ञासा होती है कि ae तत्त्वज्ञान ज्ञानी महापुरुषां से श्रवण करके विधि पूर्वक मनन और
|
7 |
+
निदिध्यासनादि ज्ञान योग के साधनों द्वारा at प्राप्त किया जा सकता है या इसकी प्राप्ति का कोई दूसरा
|
8 |
+
art भी है; इस पर अगले श्लोक में पुन: उस ज्ञान की महिमा प्रकट करते EE भगवान् कर्मयोग के द्वारा
|
9 |
+
भी वही ज्ञान अपने-आप प्राप्त होने की बात Ged F—
|
10 |
+
|
11 |
+
न हि ज्ञानेन wet पवित्रमिह feed
|
12 |
+
dead योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति | । ३८ ।
|
13 |
+
|
14 |
+
नि:संदेह He भी नहीं है | Sa ज्ञान को कितने et काल
|
15 |
+
से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्त:करण sat AWS
|
16 |
+
अपने-आप ही आत्मामें पा लेता है ।। ३८ ।।
|
17 |
+
|
18 |
+
On earth there is no purifier as great
|
19 |
+
as Knowledge, he who has attained purity
|
20 |
+
of heart through a prolonged practice of
|
21 |
+
Karmayoga automatically sees the light of
|
22 |
+
Truth in the self in course of time. (38)
|
23 |
+
|
24 |
+
प्रसंग -इस प्रकार तत्त्व ज्ञान की महिमा Het BT उसकी प्राप्ति के सांख्ययोग और कर्मयोग--दो
|
25 |
+
उपाय बतलाकर, अब भगवान् उस ज्ञान की प्राप्ति के पात्र का निरूपण करते BL उस ज्ञान का फल परम
|
26 |
+
शान्ति की प्राप्ति बतलाते हैं-- २
|
27 |
+
|
28 |
+
श्रद्धावाल्लभते AA तत्पर: संयतेन्द्रिय: |
|
29 |
+
AA Wea परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति | । ३६ ।।
|
30 |
+
|
31 |
+
S<KZ bj}
|
32 |
+
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|
1 |
+
शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।। ३६ ।।
|
2 |
+
|
3 |
+
He who has mastered his senses, is
|
4 |
+
exclusively devoted to his practice and is
|
5 |
+
full of faith, attains Knowledge; having
|
6 |
+
had the revelation to Truth, he immediately
|
7 |
+
attains supreme peace (in the form of God-
|
8 |
+
Realization), (39)
|
9 |
+
|
10 |
+
प्रसंग --इस प्रकार श्रद्धावान् को ज्ञान की प्राप्ति और उस ज्ञान से परम शान्ति की प्राप्ति बतलाकर
|
11 |
+
अब ar और विवेकहीन संशयात्मा की निन्दा करते F—
|
12 |
+
|
13 |
+
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति |
|
14 |
+
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन: । । HHI
|
15 |
+
|
16 |
+
विवेकहीन Sk sand संशययुक्त मनुष्य
|
17 |
+
ware से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है । ऐसे संशययुक्त
|
18 |
+
मनुष्य के लिये न यह लोक है, न परलोक है और न
|
19 |
+
सुख es ।। ४० ।।
|
20 |
+
|
21 |
+
He who lacks discrimination, is devoid of
|
22 |
+
faith, and is at the same time possessed by
|
23 |
+
doubt is lost to the spiritual path. For the
|
24 |
+
doubting soul there is neither this world nor
|
25 |
+
the world beyond, nor even happiness. (40)
|
26 |
+
|
27 |
+
wea ee eae wafaae othe crater afte agra a art mifte H ares wae, ore
|
28 |
+
विवेक द्वारा संशय का नाश करके कर्मयोग का अनुष्ठान करने मॆ अर्जुन का उत्साह उत्पन्न करने के लिये
|
29 |
+
संशयरहित तथा वश में किये हुए अन्त:करण वाले कर्मयोगी की प्रशंसा करते है--
|
30 |
+
|
31 |
+
> कज्
|
32 |
+
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|
|
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|
|
|
|
|
1 |
+
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय । । ४१।।
|
2 |
+
|
3 |
+
हे धनंजय ! जिसने कर्मयोग at fafa से समस्त
|
4 |
+
कर्मो का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने
|
5 |
+
विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर fear है, ऐसे
|
6 |
+
वश में किये हुए अन्त:करण वाले पुरुष को कर्म नहीं
|
7 |
+
‘arad ।। ४१ ।।
|
8 |
+
|
9 |
+
Arjuna, actions do not bind him who has
|
10 |
+
dedicated all his actions to God according to
|
11 |
+
the spirit of Karmayoga, whose doubts have
|
12 |
+
|
13 |
+
been torn to shreds by wisdom, and who is
|
14 |
+
self-possessed. (41)
|
15 |
+
|
16 |
+
य Pj OY
|
17 |
+
|
18 |
+
3S
|
19 |
+
LP prety Fe ह
|
20 |
+
/॰ट्टु,न्नू/ १ सु
|
21 |
+
|
22 |
+
~
|
23 |
+
५ ५
|
24 |
+
|
25 |
+
न्दि
|
26 |
+
|
27 |
+
= bow
|
28 |
+
—
|
29 |
+
|
30 |
+
=
|
31 |
+
|
32 |
+
a 2 ie)
|
33 |
+
|
34 |
+
BEGG Pa ह ४
|
35 |
+
|
36 |
+
प्रसंग sa प्रकार कर्मयोगी at प्रशंसा करके अब अर्जुन को कर्मयोम में स्थितं होकर युद्ध करने
|
37 |
+
की आज्ञा देकर भगवान् इस अध्याय का STE करते F—
|
38 |
+
|
39 |
+
‘Read a योगमातिष्ठोत्तिष्ठ ard Ril
|
40 |
+
|
41 |
+
इसलिये & भरतवंशी aga ! तू हृदय में Raa ga
|
42 |
+
अज्ञानजनित aay संशय का विवेक ज्ञान रूप तलवार
|
43 |
+
द्वारा Bad SH समत्वरूप कर्मयोग में Raa हो जा
|
44 |
+
और FE के लिये GST हो जा ।। ४२ II
|
45 |
+
|
46 |
+
’1`}161॰6£01॰8, र्प्]प्…थ्, 8188}॥॥ष्टु to piecert with
|
47 |
+
|
48 |
+
Neen pe een
|
49 |
+
|
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|
|
|
|
|
|
|
1 |
+
उक्योंस्यफेपोम्रेर्पोफ्लेकाप्ताखीस्राक्खि।इसींग्धार्कअक्याण्याश्रीकृष्ण र्कशापि
|
2 |
+
at और युद्धारम्भ के समय कुरुक्षेत्र F उन्हें गीता का दिव्य उपदेश Gara! अस्तु । =
|
3 |
+
|
4 |
+
जिस समय seit ओर की सेना एकत्र ह्मो चुकी थी, उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं हस्तिनापुर
|
5 |
+
जाकर हर तरह से दुर्योधन को समझाने की Seer st; परंतु Gels ere कह दिया--`मॆरॆ जीते-जी पाण्डव
|
6 |
+
कदापि राज्य नहीं पा सकते, यहाँ तक कि सू की नोक भर जमीन F पाण्डवाँ को नहीं Ear ae अपना
|
7 |
+
न्यायोचित स्वत्व प्राप्त करने के लिये पाण्डवां ने धर्म समझकर qa के लिये निश्चय ax लिया।
|
8 |
+
|
9 |
+
wa tet ओरं से युद्ध की पूरी तैयारी et गयी, तब भगवान् वेदव्यास जी ने घृतराष्ट्र के समीप
|
10 |
+
आकर उनसे कहा--`ये सञ्जय TS Ta का सब Fara सुनावेंगे | Ga की समस्त घटनावलियों को ये
|
11 |
+
प्रत्यक्ष ta, सुन और जान wat |
|
12 |
+
|
13 |
+
महर्षि वेदव्यास ज्ञी के set ort के बाद धृतराष्ट्र के पूछने पर सञ्जय Se पृथ्वी के विभिन्न Act
|
14 |
+
का वृत्तान्त Tae रहे, उसी F उन्होंने भारत वर्ष का भी वर्णन किया | तदनन्तर जब कौरव-पाण्डवाँ का
|
15 |
+
युद्ध आरम्भ हो गया और लगातार दस at तक युद्ध होने पर पितामह भीष्म रणभूमि F रथ से गिरा
|
16 |
+
दिये गये, TS सञ्जय ने धृतराष्ट्र के पास आकर SS अकस्मात् भीष्म के मारे जाने का समाचार सुनाया
|
17 |
+
(Feo भीष्म० 93) | उसे सुनकर घृतराष्ट्र को ast ही दु:ख हुआ और युद्ध की सारी बातें विस्तार a
|
18 |
+
सुनाने के लिये Ses सञ्जय से कहा, Ts सञ्जय ने दोनां ओर की सेनाओं की व्यूह-रचना आदि का
|
19 |
+
वर्णन किया | इसके बाद घृतराष्ट्र ने विशेष विस्तार के साथ आरम्भ से अब तक की पूरी घटनाऐं जानने
|
20 |
+
के लिए सञ्जय से प्रश्न किया । यहीं से श्रीमद्र्भगवद्गीता का पहला अध्याय आरम्भ होता है | महाभारत,
|
21 |
+
भीष्म of में यह पचीसवाँ अध्याय है । इसके आरम्भ में धृतराष्ट्र सञ्जय से प्रश्न करते है--
|
22 |
+
|
23 |
+
When all efforts of preventing the war between Kauravas and Pandavas
|
24 |
+
failed and subsequently both sides had thoroughly prepared to start
|
25 |
+
the battle in Kuruksetra, the sage Vedavyasa asked Dhratrastra, the
|
26 |
+
King and the father of Duryodhana, if he would like to see the terrible
|
27 |
+
camage sothat he could make a gift of transcendent vision (as King
|
28 |
+
Dhratrastra was visually handicaped otherwise), Dhratrastra replied :
|
29 |
+
“O Mahrishi. | have no desire to see with my own eyes this slaughter
|
30 |
+
of my own family, but would like to hear all the events of the battle.”
|
31 |
+
Thereupon Vedavyasa conferred the gift of divine vision on Sanjaya,
|
32 |
+
a truusty counsellor of Dhratrastra, and told that Sanjaya would
|
33 |
+
describe all the happenings of the war even while sitting with King
|
34 |
+
Dhratrastra.
|
35 |
+
The text of SRIMAD BHAGAVAD GITA:s mostly based upon ques~
|
36 |
+
tions and anwers between King Dhratrastra and Sanjay, and betweeri
|
37 |
+
Arjuna and Lord Krishna.
|
38 |
+
FIRST chapter thus starts with Dhratrastra’s question to Sanjaya in
|
39 |
+
the eh terms ;-
|
40 |
+
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|
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|
|
1 |
+
A
|
2 |
+
|
3 |
+
the sword of wisdom, this doubt in your heart,
|
4 |
+
born of ignorance, establish yourself in karma-
|
5 |
+
yoga in the shape of even-temperedness,
|
6 |
+
and stand up for the fight. (42)
|
7 |
+
|
8 |
+
& weahehe stonsercherestrnng eafterat stuart seeretatnt
|
9 |
+
ज्ञानकर्मसंन्यासयो गो नाम aqatstara: ।। ४ ।।
|
10 |
+
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|
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|
|
|
|
|
|
|
|
|
1 |
+
इस पञ्चम अध्याय में कर्मयोग-निष्ठा और सांख्ययोग-निष्ठा का वर्णन है, सांख्ययोग का &
|
2 |
+
पर्यायवाची sex `संन्यास` है । इसलिये इस अध्याय का नाम `कर्म-संन्यासयोग` रखा गया डै।
|
3 |
+
|
4 |
+
wat -भगवान् के श्रीमुख से & `ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हवि:`, `ब्रह्माग्नावपरे ast यज्ञेनैवोपजुहृति`, `तद्विद्धि
|
5 |
+
प्राणिपातेन` आदि seit द्वारा ज्ञानयोग sat कर्मसंन्यास की भी प्रशंसा अर्जुन ने atl इससे अर्जुन
|
6 |
+
ae निर्णय नहीं ax सके कि इन दोनों में से मेरे लिये कौन-सा साधन श्रेष्ठ है । अतएव अब भगवान्
|
7 |
+
के श्रीमुख से ही उसका निर्णय कराने के उद्देश्य से अर्जुन उनसे प्रश्न करते है--
|
8 |
+
|
9 |
+
ता # > as ॥
|
10 |
+
|
11 |
+
>
|
12 |
+
~ ~
|
13 |
+
|
14 |
+
Tey एतयोरेकं तन्मे ae सुनिश्चितम् । । १ ।।
|
15 |
+
|
16 |
+
अर्जुन बोले--हॆ कृष्ण ! arg कर्मो के संन्यास ar
|
17 |
+
और fax कर्मयोग की प्रशंसा wea हैं । इसलिये इन
|
18 |
+
दोनों में से जो एक मेरे लिये aefsifa निश्चित
|
19 |
+
कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिये 119 ।।
|
20 |
+
|
21 |
+
Arjuna said Krsna, you extol sankhyayoga
|
22 |
+
(the Yoga of knowledge) and thei the yoga
|
23 |
+
|
24 |
+
of Action. Pray tell me which of the two is
|
25 |
+
decidedly conducive to my good. (1)
|
26 |
+
|
27 |
+
~~
|
28 |
+
|
29 |
+
SSS
|
30 |
+
|
31 |
+
VOOR
|
32 |
+
|
33 |
+
=
|
34 |
+
ह ॥ ऽट
|
35 |
+
|
36 |
+
~
|
37 |
+
|
38 |
+
प्रसंग --अब भगवान् अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देते F—
|
39 |
+
|
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1 |
+
में भी कर्म dere a कर्मयोग aes में सुगम होने
|
2 |
+
से श्रेष्ठ है ।। २ ।।
|
3 |
+
|
4 |
+
Sri Bhagavan said : The Yoga of Knowledge
|
5 |
+
and the Yoga of Action both lead to supreme
|
6 |
+
Bliss. Of the two, however, the Yoga of Action
|
7 |
+
(being easier of practice) is superior to the
|
8 |
+
Yoga of Knowledge. (2)
|
9 |
+
|
10 |
+
प्रसंग --सांख्ययोग की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ बतलाया | अब उसी are को fra करने के लिये
|
11 |
+
अगले श्लोक में कर्मयोगी at प्रशंसा करते है--
|
12 |
+
|
13 |
+
ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न देष्टि न काङ्क्षति |
|
14 |
+
निर्द्वन्वो हि महाबाहो Fa बन्धात्प्रमुच्यते।। ३।।
|
15 |
+
|
16 |
+
हे अर्जुन ! जो gos न किसी से ou करता है और
|
17 |
+
न किसी की आकांक्षा करता है, ge कर्मयोगी सदा
|
18 |
+
से ted Fou सुखपूर्वक संसार बन्धन से मुक्त हो जाता
|
19 |
+
है ।। ३ II
|
20 |
+
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1 |
+
The Karmayogi who neither hates nor
|
2 |
+
desires should be ever considered a renouncer.
|
3 |
+
For, Arjuna, he who is free from the pairs of
|
4 |
+
opposites is easily freed from bondage. (3)
|
5 |
+
|
6 |
+
प्रसंग --साधन में सुगम होने के कारण सांख्ययोग की अपेक्षा कर्मयोग को Aes सिद्ध करके अब
|
7 |
+
ण्यादूण्रेलोकमेंपोनोंनिष्णओंकांजोएकणैस्नानिमोप्ता-फ्याक्काफ्याघुफेध्क्को
|
8 |
+
के अनुसार दो श्लोकों मॆ Sat निष्ठाओं की wer F एकता का प्रतिपादन at हैं--
|
9 |
+
|
10 |
+
सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता: |
|
11 |
+
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् । । ४।।
|
12 |
+
|
13 |
+
उपर्युक्त dare ak कर्मयोग को ad लोग
|
14 |
+
पृथक्-पृथक् फल देने वाले Hed हैं न fH पण्डित जन,
|
15 |
+
क्योंकि ait में से एक में भी सम्यक् प्रकार से Raa
|
16 |
+
पुरुष दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता
|
17 |
+
ह ।।`४ il
|
18 |
+
|
19 |
+
It is the ignorant, not the wise, who say
|
20 |
+
that Sankhyayoga and Karmayoga lead to
|
21 |
+
divergent results. For one who is firmly
|
22 |
+
established in either gets the fruit of both
|
23 |
+
(which is the same, viz., God-Realization)(4)
|
24 |
+
|
25 |
+
एक सांख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति । । ५ । ।
|
26 |
+
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1 |
+
हे कर्मयोगियोद्वाराभीवहीप्राप्तकिंयाजाताहे।
|
2 |
+
इसलिये जो पुरुष ज्ञान योग और कर्मयोग को फलरूप
|
3 |
+
में एक देखता है, वही. यथार्थ देखता है ।। ५ ।।
|
4 |
+
|
5 |
+
The (supreme) state which is reachd by
|
6 |
+
the Sankhyayogi is attained also by the
|
7 |
+
Karmayogi. Therefore, he alone who sees
|
8 |
+
Sankhyagoga and Karmayoga as one (so far
|
9 |
+
as their result goes) really sees. (5)
|
10 |
+
|
11 |
+
३
|
12 |
+
x
|
13 |
+
Att,
|
14 |
+
SLA
|
15 |
+
LIE २
|
16 |
+
|
17 |
+
iit
|
18 |
+
|
19 |
+
gE
|
20 |
+
|
21 |
+
प्रसंग --सांख्ययोग और कर्मयोग के फलकी एकता बतलाकर अब कर्मयोग at साधनविषयक
|
22 |
+
विशेषता को स्पष्ट करते हैं--
|
23 |
+
|
24 |
+
संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।
|
25 |
+
|
26 |
+
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति । । ६ । ।
|
27 |
+
aa, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाला सम्पूर्ण Haft
|
28 |
+
में कर्तापन का UM, wed होना कठिन & और
|
29 |
+
भगवत्स्वरूप को मनन HA Ae कर्मयोगी परब्रह्म
|
30 |
+
परमात्मा को शीघ्र Sf प्राप्त हो जाता है ।। ६ ।।
|
31 |
+
|
32 |
+
/ =——
|
33 |
+
|
34 |
+
।
|
35 |
+
॥
|
36 |
+
|
37 |
+
Without Karmayoga, however, Sankhyayoga
|
38 |
+
(or renunciation of doership in relation to all
|
39 |
+
activities of the mind, senses and body) is
|
40 |
+
difficult to accomplish; whereas the Karma-
|
41 |
+
yogi, who keeps his mind fixed on God,
|
42 |
+
reaches Brahma in no time, Arjuna. (6)
|
43 |
+
|
44 |
+
e I°}
|
45 |
+
|
46 |
+
131
|
47 |
+
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1 |
+
प्नक्ता-अनक्मर्युक्तकर्पयोगींफेल्यार्णोकाक्यनिक्तोहुएउसर्केकर्मोमेंलिप्तनवोनेकोक्ता “Tay
|
2 |
+
|
3 |
+
ee
|
4 |
+
सर्वभूतात्मंभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।। ७ ।।
|
5 |
+
|
6 |
+
जिसका AA अपने वश A है, जो जितेन्द्रिय एवं
|
7 |
+
विशुद्ध अन्त:करण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का
|
8 |
+
आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, Gat कर्मयोगी
|
9 |
+
कर्म करता sar Ht लिप्त नहीं होता ।। ७ ।।
|
10 |
+
|
11 |
+
The Karamayogi, who has fully conquered
|
12 |
+
his mind and mastered his senses, whose heart
|
13 |
+
is pure, and who has identified himself with
|
14 |
+
the self ofall beings (viz, God), remains untainted,
|
15 |
+
even though performing action. (7)
|
16 |
+
|
17 |
+
प्रसंग --दूसरे श्लोक में कर्मयोग और सांख्ययोग की सूत्र रूप से फल में एकता बतलाकर सांख्ययोग
|
18 |
+
की अपेक्षा सुगमता के कारण कर्मयोग श्रेष्ठ बतलाया | फिर तीसरे श्लोक में कर्मयोगी at प्रशंसा करके,
|
19 |
+
चौथे और stat श्लोकों में दोनों के फल St एकता का और स्वतन्त्रता का भलीभाति प्रतिपादन किया |
|
20 |
+
तदनन्तर BS श्लोक के पूवार्द्ध में कर्मयोग के बिना सांख्ययोग का सम्पादन कठिन बतलाकर उत्तरार्द्ध
|
21 |
+
में कर्मयोग की सुगमता-का प्रतिपादन करते हुए सातवें श्लोक में कर्मयोगी के लक्षण बतलाये | इससे ae
|
22 |
+
बात सिद्ध हुई कि eat साधनों का फल एक होने पर भी दोनों साधन परस्पर भिन्न FI अत: दोनों का
|
23 |
+
स्वरूप जानने की इच्छा होने पर भगवान् पहले, आठवें और ad श्लोकों में सांख्ययोगी के व्यवहार काल
|
24 |
+
के साधन का स्वरूप बतलाते हैं--
|
25 |
+
|
26 |
+
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नु न्मिषन्निमिषन्नपि ।
|
27 |
+
इज्रियाणींन्दियार्येबु वर्तन्त इति थाय्यन्। lel
|
28 |
+
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|
1 |
+
सुनता SS, Gael करता Ba, FAaT SST, भोजन
|
2 |
+
PLAT SSM, TAA HLA EST, सोता SAT, श्वास लेता
|
3 |
+
तथा ऒओखो को खोलता और Yaar sor भी ase
|
4 |
+
समझकर नि:सन्देह Car माने कि मैं aye भी नहीं करता
|
5 |
+
|
6 |
+
ह ।। द-८६ ||
|
7 |
+
The Sankhyayogi, however, who knows
|
8 |
+
the reality of things; must believe, even
|
9 |
+
though seeing, hearing, touching, smelling,
|
10 |
+
eating or drinking, walking, sleeping, breathing,
|
11 |
+
| speaking, answering the calls ofnature, grasping
|
12 |
+
ey and opening or closing the eyes, that he
|
13 |
+
-« | does nothing, holding that it is the senses
|
14 |
+
that are moving among their objects. (8,9)
|
15 |
+
|
16 |
+
प्रसंग --इस प्रकार सांख्ययोगी के साधन का स्वरूप बतलाकर अब दसवें और ग्यारहवें श्लोकों में
|
17 |
+
` |: कर्मयोगियों के साधन का फलसहित स्वरूप बतलाते है--
|
18 |
+
ब्रह्मण्याधाय BAM WTA करोति य: |
|
19 |
+
|
20 |
+
frat न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा । । १०।।
|
21 |
+
|
22 |
+
133 श्रीमद्भगवद्गीता
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|
|
|
|
|
|
1 |
+
LESS
|
2 |
+
॥। २९
|
3 |
+
|
4 |
+
10)
|
5 |
+
|
6 |
+
LAL
|
7 |
+
|
8 |
+
होता ।। १० ।।
|
9 |
+
|
10 |
+
He who acts offering all actions to God,
|
11 |
+
and shaking off attachment, remains untouched
|
12 |
+
by sin, as the lotus leaf by water. (10)
|
13 |
+
|
14 |
+
कायेन मनसा Gaal केवलैरिन्द्रियैरपि |
|
15 |
+
योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये । । ११ ।।
|
16 |
+
|
17 |
+
कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि
|
18 |
+
SIX शरीर द्वारा भी arate को त्यागकर अन्त:करण
|
19 |
+
a शुद्धि के लिये कर्म करते = 1199 ।।
|
20 |
+
|
21 |
+
The Karmayogis perform action only with
|
22 |
+
their senses, mind, intellect and body as well,
|
23 |
+
withdrawing the feeling of mine in respect of
|
24 |
+
them and shaking off attachment simply for
|
25 |
+
the sake of self-purification. (11)
|
26 |
+
|
27 |
+
SSS
|
28 |
+
|
29 |
+
Ui | saw wie
|
30 |
+
|
31 |
+
FZ
|
32 |
+
=
|
33 |
+
|
34 |
+
&
|
35 |
+
|
36 |
+
—
|
37 |
+
|
38 |
+
प्रसंग --इस प्रकार से कर्म करने वाला भक्ति प्रधान कर्मयोगी orat से लिप्त नहीं होता और कर्म
|
39 |
+
प्रधान कर्मयोगी का अन्त:करण-शुद्ध हो जाता है, यह सुनने पर इस बात की जिज्ञासा होती है कि कर्मयोग
|
40 |
+
का यह अन्त:करण शुद्धि I इतना ही फल है, या gad अतिरिक्त oe विशेष फल भी है ? एवं इस
|
41 |
+
TOR कर्म न करके सकामभाव से शुभ कर्म करने में क्या हानि है ? अतएव ae इसी बात को स्पष्टरूप
|
42 |
+
से समझाने के feat भगवान् कहते F—
|
43 |
+
|
44 |
+
युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् |
|
45 |
+
Sa: कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।। १२।।
|
46 |
+
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|
1 |
+
८// दळळ,५३२३३९ न् . SS य Sy ।
|
2 |
+
LEE SFE
|
3 |
+
|
4 |
+
ty
|
5 |
+
|
6 |
+
aq omits ora er ® sie sarges era
|
7 |
+
की प्रेरणा से फल F Sach होकर STAT है ।। १२ ।।
|
8 |
+
|
9 |
+
Offering the fruit of actions to God, the
|
10 |
+
Karmayogi attains everlasting peace in the
|
11 |
+
shape of God-Realization; whereas he who
|
12 |
+
works with a selfish motive, being attached
|
13 |
+
to the fruit of action through desire, gets tied
|
14 |
+
down. (12)
|
15 |
+
|
16 |
+
प्रसंग --यहाँ यह बात कही गयी कि `कर्मयोगी` कर्म फल से न बैधकर परमात्मा की प्राप्ति रूप
|
17 |
+
शान्ति को प्राप्त होता है और `सकाम पुरुष` फल में आसक्त होकर जन्म-मरण रूप बन्धन में पड्ता है,
|
18 |
+
* किंतु यह नहीं बतलाया कि सांख्ययोगी का क्या होता है ? अत एव अब सांख्ययोगी की स्थिति बतलाते
|
19 |
+
|
20 |
+
ze
|
21 |
+
सर्वकर्माणि मनसा सन्यस्यास्ते Fa asit |
|
22 |
+
नवदारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।१३।।
|
23 |
+
|
24 |
+
अन्त:करण जिसके वश में है, Car सांख्ययोग का
|
25 |
+
ART करने वाला पुरुष न करता Se AK न
|
26 |
+
करवाता SA Sf Adal वाले शरीर BT घर में सब
|
27 |
+
कर्मो को मन से त्यागकर आनन्दपूर्वक सच्चिदानन्दघन
|
28 |
+
परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है ।। १३ ।।
|
29 |
+
|
30 |
+
The self-controlled Sankhyayoga, doing
|
31 |
+
nothing himself and getting nothing done by
|
32 |
+
others, rests happily in God, the embodiment
|
33 |
+
|
34 |
+
ULL YY Lin y 26 OS ३७७३ ७२९९
|
35 |
+
|
36 |
+
ae? श्रीमद्र्भगवद्गीता
|
37 |
+
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|
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|
1 |
+
3
|
2 |
+
|
3 |
+
७७
|
4 |
+
|
5 |
+
¥ LLL e@ 4
|
6 |
+
|
7 |
+
of Truth, Knowledge and Bliss, mentally
|
8 |
+
relegating all actions to the mansion of nine
|
9 |
+
gates (the body with nine openings). (13)
|
10 |
+
|
11 |
+
प्रसंग --जबकि आत्मा वास्तव में कर्म करने वाला भी नहीं है और इन्द्रियादि & करवाने aren भी
|
12 |
+
wel है, तो फिर सब मनुष्य अपने को कर्मो का कर्ता क्यों मानते है और a कर्म फल के भागी क्यों aa
|
13 |
+
हैं--
|
14 |
+
|
15 |
+
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति Ay: |
|
16 |
+
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु `प्रवर्तते । । १४।।
|
17 |
+
परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मो ar
|
18 |
+
|
19 |
+
स्वभाव ही बर्त रहा है ।। १४ ।।
|
20 |
+
|
21 |
+
God determines not the doership nor the
|
22 |
+
doings of men, nor even their contact with
|
23 |
+
the fruit of actions; but it is Nature alone
|
24 |
+
that functions. (14)
|
25 |
+
|
26 |
+
प्रसंग ol साधक समस्त कर्मो को और कर्म फलो को भगवान् के अर्पण करके कर्म Ga से अपना
|
27 |
+
सन्वन्ध-बिर्च्छदकालेतेहैं,उनर्केशुभाशुभकर्मौर्कफलफेच्चणीक्याफ्याहोत्तेहें?झाजिज्ञप्ता
|
28 |
+
पर Hed हैं--
|
29 |
+
|
30 |
+
Ted कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:।
|
31 |
+
अज्ञानेनाव्रतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव: । । १४।।
|
32 |
+
सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के arg कर्म को
|
33 |
+
|
34 |
+
Ny) ` । । प 2 ॠ ।) । न ‘ -
|
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1 |
+
३ GYM GA YYW ZopoNSS SHV SSS SS
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2 |
+
222
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3 |
+
YY
|
4 |
+
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5 |
+
27
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6 |
+
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: |
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7 |
+
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय । । १।।
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8 |
+
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9 |
+
Gass बोले--हे सञ्जय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में
|
10 |
+
एकत्रित, युद्ध की इच्छा Act मेरे AK पाण्डु के GS
|
11 |
+
ने क्या किया ? ।। १ ।।
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12 |
+
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13 |
+
Dhratrastra said: Safijaya, gathered on
|
14 |
+
the sacred soil of Kuruksetra, eager to fight,
|
15 |
+
what did my children and the children of
|
16 |
+
Pandu do? (1)
|
17 |
+
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18 |
+
TAT — धृतराष्ट्र के IA पर सञ्जय Hed F—
|
19 |
+
सञ्जय उवाच
|
20 |
+
eM तु पाण्डवानीक व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
|
21 |
+
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् 11211
|
22 |
+
सञ्जय बोले--उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूह
|
23 |
+
रचनायुक्त West की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य
|
24 |
+
के पास जाकर Ge वचन Her ।। २ ।।
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25 |
+
Safijaya said :At that time, seeing the army
|
26 |
+
of the Pandavas drawn up for battle and
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27 |
+
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28 |
+
‘e) approaching Dronacarya King Duryodhana
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29 |
+
_| spoke these words: (2)
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30 |
+
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1 |
+
ARO
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2 |
+
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3 |
+
SSS SS
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4 |
+
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5 |
+
ny
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6 |
+
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7 |
+
SS.
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8 |
+
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9 |
+
६० च
|
10 |
+
२६
|
11 |
+
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12 |
+
अज्ञान के AR SAT SH Sat है, St से सब अज्ञानी
|
13 |
+
मनुष्य मोहित हो रहे हैं ।। १५ ।।
|
14 |
+
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15 |
+
The omnipresent God does not receive the
|
16 |
+
virtue or sin of anyone. Knowledge is envel-
|
17 |
+
oped in ingorance; hence it is that beings are
|
18 |
+
constantly falling a prey to delusion. (15)
|
19 |
+
|
20 |
+
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन:।
|
21 |
+
तेषामादित्यवज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्̣ । । १६।।
|
22 |
+
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23 |
+
परन्तु जिसका वह अज्ञान परमात्मा के तत्त्व ज्ञान
|
24 |
+
|
25 |
+
द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के
|
26 |
+
Tal Sa सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित HK
|
27 |
+
देता है ।। १६ ।।
|
28 |
+
|
29 |
+
In the case, however, to those whose
|
30 |
+
said ignorance has been set aside by true
|
31 |
+
Knowledge of god, that wisdom shining like
|
32 |
+
the sun reveals the supreme. (16)
|
33 |
+
|
34 |
+
प्रसंग --यथार्थं ज्ञान से परमात्मा की प्राप्ति होती है, यह बात संक्षेप में कहकर अब छब्बीसवें श्लोक
|
35 |
+
तक ज्ञानयोग द्वारा परमात्मा को प्राप्त होने के साधन तथा परमात्मा को प्राप्त सिद्ध TOSS लक्षण, आचरण,
|
36 |
+
महत्त्व Gk Rafe का वर्णन करने के उद्देश्य से पहले यहाँ ज्ञानयोग के एकान्त साधन द्वारा परमात्मा
|
37 |
+
की प्राप्ति बतलाते F—
|
38 |
+
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1 |
+
जिनका AA तद्रूप हो ter है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो
|
2 |
+
रही डै ak सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही जिनकी
|
3 |
+
निरन्तर एकीभाव से Rafa है, ऐसे तत्परायण पुरुष
|
4 |
+
ज्ञान के द्वारा पापरहित होकर ayaa को अर्थात्
|
5 |
+
परमगति को प्राप्त होते हैं ।। १७ ।।
|
6 |
+
|
7 |
+
Those whose mind and intellect are wholly
|
8 |
+
merged in Him, who-remain constantly
|
9 |
+
established in identity with Him, and have
|
10 |
+
finally become one with Him, their sins being
|
11 |
+
wiped out by wisdom, reach the state whence
|
12 |
+
there is no return. (17)
|
13 |
+
|
14 |
+
प्रसंग -परमात्मा की प्राप्ति का साधन बतलाकर अब परमात्मा को प्राप्त सिद्ध Tost के `समभाव`
|
15 |
+
का वर्णन करते हैं--
|
16 |
+
|
17 |
+
विद्याविनयसंपन्ने at गवि हस्तिनि |
|
18 |
+
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन: । । १८।।
|
19 |
+
|
20 |
+
वे ज्ञानीजन विद्या six विनययुक्त ब्राह्मण में तथा .
|
21 |
+
गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते
|
22 |
+
हन्र
|
23 |
+
|
24 |
+
The wise look with the same eye on a
|
25 |
+
+ \|\ Brahmana endowed with learning and
|
26 |
+
|
27 |
+
culture, a cow, an elephant, a dog, and a
|
28 |
+
pariah too
|
29 |
+
|
30 |
+
WW
|
31 |
+
|
32 |
+
४
|
33 |
+
|
34 |
+
पञ्चम अध्याय 138
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1 |
+
ट्रै DY If, Sy SS.
|
2 |
+
<0; Zig SS
|
3 |
+
|
4 |
+
प्रसंग --इस प्रकार तत्त्वज्ञानी के समभाव का वर्णन करके अब समभाव को ब्रह्म का स्वरूप बतलाते
|
5 |
+
हुए sey faa Fergest की महिमा का वर्णन करते हैं--
|
6 |
+
|
7 |
+
इहैव तैर्जित: ait येषां ara स्थितं मन: |
|
8 |
+
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिता: । । १६।।
|
9 |
+
|
10 |
+
जिनका मन समभाव में स्थित है, Sah द्वारा इस जीवित अवस्था
|
11 |
+
में ही at dan sia त्रिया गया है, क्योंकि सच्चिदानन्दघन
|
12 |
+
परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में
|
13 |
+
a स्थितं हैं ।। १६ ।।
|
14 |
+
|
15 |
+
Even here is the mortal plane conquered
|
16 |
+
by those whose mind is established in unity;
|
17 |
+
since the Absolute is untouched by evil and
|
18 |
+
knows no distinction, hence they are established
|
19 |
+
in the Eternal. (19)
|
20 |
+
|
21 |
+
प्रसंग -अब निर्गुण निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त समदर्शी सिद्ध पुरुष के लक्षण बत्लाते
|
22 |
+
|
23 |
+
ति न प्रहृष्येत्प्रिय प्राप्य नोद्रिजेत्प्राप्य चाप्रियम् |
|
24 |
+
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद ब्रह्मणि स्थित: । । २०।।
|
25 |
+
|
26 |
+
जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और
|
27 |
+
अप्रिय को प्राप्त होकर Slat न हो, ae स्थिर gfe
|
28 |
+
संशयरहित Sead Jeu सच्चिदानन्दघन परब्रह्म
|
29 |
+
परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थितं है ।। २० II
|
30 |
+
|
31 |
+
139 | श्रीमद्भगवद्गीता ।
|
32 |
+
|