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1
+ INTRODUCTION
2
+
3
+ त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा waa |
4
+ त्वमेव faa, द्रविड्म् aaa, त्वमेव ad ay देव देव ।।
5
+
6
+ Thou art Mother, thou art Father, thou art kinsman, thou art friend,
7
+ thou art knowledge, thou art wealth; thou art my all, O’Lord of Lords.
8
+
9
+ ‘Srimad Bhagavad Gita’ is just not a holy book, it has alsc
10
+ gained a prominent place in literature of the world. It contains
11
+ divine words emanating from the lips of Lord Krishna. This great
12
+ epic is an eloquent proof of the observation. As a scripture, this
13
+ Book embodies the supreme spiritual mystery and secrets. Its
14
+ style is so simple and elegant that with a little study one can
15
+ easily follow the structure of its words, yet the thoughts behind
16
+ those words are so deep and abstruse that even for life time,
17
+ constant study of this Book may not show an end of it.
18
+
19
+ ‘The Bhagavad Gita’ is an unfathomable ocean of wisdom. It
20
+ is a bottomless sea containing endless strate of meanings. Just
21
+ as adiver diving deep in the sea lays his hands on precious gems,
22
+ similarly diving deeper and deeper into the secrets of this Book,
23
+ the seeker goes on discovering more and more piles of
24
+ extraodrdinary gems of thoughts and ideas.
25
+
26
+ ‘The Bhagavad Gita’ is a part of the Mahabharata, but even
27
+ then it has its own identity, which has made it more prominent
28
+ than the Mahabharata. It may look to be just a narration of the
29
+ happenings of the war between Kauravas and Pandavas, but it
30
+ is the philosophy of life, expressed from the lips of Lord Krishna,
31
+ addressed to the warrior Arjuna, defining following ideas :
32
+
33
+ (i) Facing your enemies in a war is an asupicious and especial
34
+
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1
+ प्रसंग ea प्रकार अर्जुन के YEA पर भगवान् श्रीकृष्ण कहने लगे--
2
+
3
+ श्रीभगवानुवाच
4
+ काम एष क्रोधं एष रजोगुणसमुद्भव:।
5
+ महाशनो महापाम्पा विद्धयेनमिह वैरिणम् 113911
6
+
7
+ श्रीभगवान् बोले--रजोगुण से SIA SAT यह HA
8
+ ही क्रोध है, यह Fed खाने aren’ अर्थात् APT से कभी
9
+ न अघाने वाला Bit Sst पापी है, इसको St तू sa
10
+ विषय में वैरी जान ।। ३७ |!
11
+
12
+ Sri Bhagavan said: It is desire begotten
13
+ | | of the element of Rajas, which appears as
14
+ wrath; nay, it is insatiable and grossly wicked.
15
+ Know this to be the enemy in this case. (37)
16
+
17
+ प्रसंग --पूर्वं श्लोक में समस्त अनर्थो का मूल और इस मनुष्य को बिना gear के ord में लगाने
18
+ । । वाला वैरी काम को बतलाया | इस पर यह जिज्ञासा होती है कि यह काम मनुष्य को किस प्रकार पापां
19
+
20
+ (| age करता है ? ora: ora तीन श्लोकों द्वारा ae समञझाते है ae मनुष्य के ज्ञान को आच्छादित
21
+ । | क्ररके उसे अन्घा बनाकर WT के गड्ढे में ढकेल देता है--
22
+
23
+ धूमेनाव्रियते वह्रिर्यथादर्शो att च।
24
+ यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् । । ३।।
25
+
26
+ | जाता & तथा जिस प्रकार जेर से af Sar रहता है,
27
+ © । वैसे & St काम के aN यह ज्ञान Sar रहता
28
+ \V ।। ३८ 11
29
+
30
+ ba ee Ae
31
+
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1
+ As a flame is covered by smoke, mirror by
2
+ dirt, and embryo by the amnion, so is Knowledge
3
+ coverd by it (desire) (38)
4
+
5
+ प्रसंग --पूर्व श्लोक Fa पद `काम` का और `इदम्`“ पद `ज्ञान` का वाचक B— इस बात को
6
+ स्पष्ट करते हुए उस काम को अग्नि की citer कभी पूर्ण न होने वाला बतलाते है
7
+
8
+ आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा
9
+ कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ।। ३६।।
10
+
11
+ और हे अर्जुन ! sa अग्नि के समान कभी न पूर्ण
12
+ होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी के द्वारा मनुष्य
13
+ का SM SH Sar है ।। ३६ ।।
14
+
15
+ And, Arjuna, Knowledge stand covered by
16
+ this eternal enemy of the wise, known as
17
+ desire, which is insatiable like fire. (39)
18
+
19
+ प्रसंग --इस प्रकार काम के द्वारा ज्ञान को आवृत बतलाकर At Ba मरने का उपाय बतलाने के
20
+ उद्देश्य से उसके वासस्थान और उसके द्वारा जीवात्मा के मोहित किये जाने का प्रकार बतलाते F—
21
+
22
+ इन्द्रयाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते |
23
+ एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्̣ । । ४।।
24
+
25
+ इन्द्रियाँ, AT और बुद्धि--ये सब इसके वासस्थान
26
+
27
+ we जाते हैं । यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों are | /
28
+ a am को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित |e
29
+
30
+ करता है ।। ४८०८
31
+
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1
+ The senses, the mind and the intellect are
2
+ declared to be its seat; screening the light of
3
+ Truth through these; it (desire) deludes the
4
+
5
+ lise SECS NSIC YO
6
+ Zivp oe Cy Wl» ie
7
+ Y
8
+
9
+ \ Y
10
+
11
+ embodied soul. (40) |:
12
+
13
+ प्रसंग --इस प्रकार कामरूप वैरी के अत्याचार का और ae जहाँ छिपा रहकर अत्याचार करता है,
14
+ उन वासस्थानों का परिचय कराकर, TS भगवान् उस कामरूप वैरी को मारने की few बतलाते हुए उसे
15
+ मार डालने के लिये अर्जुन को आज्ञा देते F—
16
+
17
+ तस्मात्त्वमिन्दरियाण्यादो नियम्य भरतर्षभ।
18
+ पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् । । ४१।
19
+
20
+ इसलिये हे अर्जुन ! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके
21
+
22
+ इस ज्ञान Six विज्ञान का AIT करने वाले महान पापी |
23
+
24
+ काम को अवश्य ही बलपूर्वक AK डाल ।। ४१ ।।
25
+
26
+ Therefore, Arjuna, you must first control NG
27
+
28
+ your senses; and then kill this evil thing which
29
+ obstructs Jhana (Knowledge of the Absolute
30
+
31
+ or Nirguna Brahma) and vijnana (Knowledge |
32
+
33
+ of Sakar Brahma or manifest Divinity). (41)
34
+
35
+ प्रसंग -पूर्व श्लोक में इन्द्रियों को वश में करके कामरूप शत्रु को मारने के लिये कहा गया। इस |
36
+ पर यह शंका होती है कि जब इन्द्रिय, मन और Sha पर काम का अधिकार है और उनके द्वारा कामने | .
37
+ जीवात्मा को मोहित ax Tar है at ऐसी स्थिति में ae इन्द्रियों को वश में करके काम को कैसे मार सकता | ;
38
+ है । इस शंका को दूर करने के लिये भगवान् आत्मा के यथार्थ स्वरूप लक्ष्य कराते BL आत्मबल की स्मृति
39
+
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1
+ इन्दियोकॊस्थूलशरीरसेपरेयानीश्नेष्ठबलवान्
2
+ AK सूक्ष्म Hed हैं; इन इन्द्रियों से परे मन है, मन a
3
+ भी परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अन्यन्त परे है
4
+ qe आत्मा है ।। ४२ ।।
5
+
6
+ The senses are said to be greater than
7
+ the body; but greater than the senses is the
8
+ mind. Greater than the mind is the intellect;
9
+ and what is greater than the intellect is he
10
+ (the Self). (42)
11
+
12
+ Vi प्रसंग --अब भगवान् पूर्वं श्लोक के वर्णनानुसार आत्मा को सर्वश्रेष्ठ समझकर कामरूप वैरी को
13
+
14
+ एवं बुद्धे परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना |
15
+
16
+ we शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् । । ४२।।
17
+
18
+ इस प्रकार बुद्धि से परे अर्थात् सूक्ष्म, बलवान् और
19
+ अत्यन्त ASS AST को जानकर और बुद्धि के ERT
20
+ WA को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप
21
+ दुर्जय शत्रु को AK डाल ।। ४३ ।।
22
+
23
+ Thus, Arjuna, knowing that which is higher
24
+ than the intellect and subduing the mind by
25
+ reason, kill this enemy in the form of Desire
26
+ that is hard to overcome. (43)
27
+
28
+ & तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिघत्सु ब्रह्मविद्यायां abet श्रीकृष्णार्जुन-
29
+ र्व्यर्शायोगॊक्तातॄतीपोऽप्याय ।। ३ ।।
30
+
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1
+ यहाँ `ज्ञान` शब्द परमार्थ-ज्ञान अर्धात् तत्त्व ज्ञान का, et शब्द कर्मयोग अर्थात् योग arf का
2
+ Ax `संन्यास` शब्द सांख्ययोग अर्थात् ज्ञान art का वाचक है; विवेकज्ञान और शासत्रज्ञान भी ST शब्द
3
+ के अन्तर्गत ह । इस Sta अध्याय में भगवान् ने अपने अवतरित होने के रहस्य और तत्त्व सहित कर्मयोग
4
+ तथा संन्यास योग का और इन सबके फलस्वरूप जो परमात्मा का Tea यथार्थ ज्ञान है, उसका वर्णन किया
5
+ है; इसलिये इस अध्याय का नाम `ज्ञानकर्म-संन्यास योग` रखा गया है।
6
+
7
+ प्रसंग -अब भगवान् पुन: उसके सम्बन्ध में बहुत-सी art बतलाने के उद्देश्य से उसी का प्रकरण
8
+ आरम्भ करते हुए पहले तीन श्लोकों मै उस कर्मयोग की परम्परा बतलाकर उसकी अनादिता सिद्ध करते
9
+ हुए प्रशंसा करते है--
10
+
11
+ श्रीभगवानुवाच
12
+ इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |
13
+
14
+ विवस्वान्मनवे we मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् । । १ । ।
15
+
16
+ श्री भगवान् बोले--मैंने se अविनाशी योग at et
17
+ से कहा a, सूर्य ने अपने GT वैवस्वत AT से HET) ई
18
+ SR मनु ने AGT पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा ।। १ ।।।.
19
+
20
+ Sri Bhagavan said: I taught this immortal |
21
+ Yoga to Vivasvan (Sun-god); Vivasvan| ।
22
+ conveyed it to Manu (his son); and Manu).
23
+ imparted it to (his son) Iksvaku.
24
+
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1
+ ४ र्किद्र्यट्टुन्दुंइं///////श्रु/// YP PP IOS
2
+
3
+ ) ढ ९ ३७7
4
+
5
+ ग् एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो fag: | Nd
6
+
7
+
8
+ स कालेनेह महता AN AS: WaT! २।।
9
+
10
+ हे परन्तप अर्जुन ! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस
11
+ बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो
12
+ गया ।। २ ।। ॥
13
+
14
+ Thus transmitted in succession from father
15
+ to son, Arjuna, this Yoga remained known to
16
+ the Rajarsis (royal sages). It has, however,
17
+ long since disappeared from this earth. (2)
18
+
19
+ WMA
20
+
21
+ ट्
22
+
23
+
24
+ स एवायं मया तेऽद्य योग: प्रोक्त: पुरातन:।
25
+ WHS A AA चेति Wa ह्येतदुत्तमम् । । ३ । ।
26
+
27
+ तू मेरा भक्त six ra wer है, इसलिये वही ae
28
+ él उत्तम रहस्य है Had गुप्त रखने योग्य fava
29
+ 1S ।। ह ।।
30
+
31
+ The same ancient Yoga has this day been
32
+ imparted to you by Me, because you are My
33
+ devotee and friend; and also because this is a
34
+ supreme secret.
35
+
36
+ ee
37
+
38
+ = SS
39
+ age अध्याय
40
+
41
+ WSS
42
+
43
+ =
44
+
45
+ =>
46
+
47
+ LYN Ss
48
+
49
+ LE
50
+ ZS
51
+
52
+ Uy
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1
+ See 2 ज् FSS
2
+ WW प्रसंग --उपर्युक्त वर्णन से मनुष्य को स्वाभाविक at यह शंका हो सकती है कि भगवान् श्रीकृष्ण ।
3
+ | dt अभी द्वापरयुग में प्रकट gut और a देव, मनु एवं इक्ष्वाकु बहुत पहले हो चुके हैं; तब इन्होंने इस
4
+ | योग का उपदेश सूर्य के प्रति Se Rar? अतएव इसके समाधान के साथ ही भगवान् के अवतार-तत्त्व
5
+ | को act प्रकार समझने की इच्छा से अर्जुन Yor F—
6
+
7
+ Oe
8
+ AWS WL
9
+
10
+ HAs त्वमादौ प्रोक्तवानिति । । st
11
+
12
+ ३ अर्जुन बोले--आपका जन्म a अर्वाचीन--अभी
13
+ (| art कहा था ।। ४ ।।
14
+
15
+ Arjuna said : You are of recent origin, while
16
+ the birth of Vivasvan dates back to remote
17
+ antiquity. How, then, am I to believe that
18
+ /| You taught this Yoga at the beginning of
19
+ | creations? (4)
20
+
21
+ // प्रसंग --इस प्रकार APA के पूछने पर अपने अवतार-तत्त्व का रहस्य समझाने के लिये अपनी सर्वज्ञता
22
+ ,)। प्रकट करते EL भगवान् Het F—
23
+
24
+ श्रीभगवानुवाच
25
+ बहूनि A व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
26
+ तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप । YI
27
+ ळ्ळिर्व्य र्व्यद्गु\ळै LW Yj
28
+ 103 श्रीमद्भगवद्गीता
29
+
30
+ Wy
31
+
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1
+ किंतु मैं जानता € ।। ५ ।।
2
+ Sri Bhagavan said ; Arjuna, you and I have
3
+ passed through many births, I remember
4
+
5
+ them all; you do not remember, O chastiser ||
6
+ of foes. (5) |
7
+
8
+ प्रसंग --भगवान् के मुख से यह बात सुनकर कि अव तक मेरे बहुत-से जन्म हो चुके B, यह जानने | .
9
+ की इच्छा होती है कि आपका जन्म किस प्रकार होता है और आपके जन्म में तथा अन्य लोगा के जन्म |
10
+ # क्या भेद है । अतएव इस बात को समञझझाने के लिये भगवान् अपने जन्मका तत्त्व बतलाते है । . .
11
+
12
+ अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
13
+ प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया । । ६ । ।
14
+
15
+ मेअजन्माओरअचिनाशीस्यरूपहोतेह्रुएभीतथा
16
+
17
+ को अधीन`करके अपनी योगमाम्ला से प्रकट होता
18
+ ह ।। ६ ।।
19
+
20
+ Though birthless and deathless, and the |
21
+
22
+ Lord of all beings, I manifest Myself through । ।
23
+ My own Yogamaya (divine potency), keeping ——
24
+ My Nature (Prakrti) under control. (6) =
25
+
26
+ se ree ye से उनकं जन्म का तत्य सुनने पर यह जिजञासा झेती है कि |
27
+
28
+ आप किस-किस समय और किन-किन कारणो से इस प्रकार अवतार धारण करते Sl इस पर भगवान् | | न्नू_दुं,’,_.,
29
+ दो श्लोकां मै अपने अवतार के अवंसर, हेतु और उद्देश्य बतलाते हैं-- NYA
30
+
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1
+ G
2
+ y
3
+
4
+ aS
5
+
6
+
7
+
8
+ BEX
9
+
10
+ SS wy
11
+
12
+ ~
13
+
14
+ ७७९
15
+
16
+ ७२० S
17
+
18
+ Bx
19
+
20
+ Wy
21
+
22
+
23
+ =
24
+ SS
25
+ Sw
26
+
27
+ ८ iy 4,
28
+
29
+ y
30
+
31
+ अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। 91
32
+
33
+ हे भारत ! जब-जब धर्म aT हानि और अधर्म की
34
+ अर्थात् साकार रूप से लोगो के सम्मुख whe होता
35
+ alle ।।
36
+
37
+ Arjuna, whenever righteousness is on the
38
+
39
+ decline, and unrighteousness is in the
40
+ ascendant, then I body Myself forth. (7)
41
+
42
+ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
43
+ धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि Ft युगे।।<॥।
44
+
45
+ साधु FSU का Sa करने के लिये, पाप-कर्म HET
46
+ वालो का विनाश करने के लिये और धर्म की अच्छी
47
+ तरह से स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट SAT
48
+ करता € llc ।।
49
+
50
+ For the protection of the virtuous, for the
51
+ extirpation of evil-doers, and for establish-
52
+
53
+ ing Dharma (righteousness) on a firm footting,
54
+ I born from age to age.
55
+
56
+ %,%222; 22 SLL. yyy ye Ss ESS
57
+
58
+ ५222
59
+ ६९९
60
+
61
+ | KO: 27 ’,॰’टं॰‘ < - …
62
+
63
+ WS
64
+
65
+ WSS
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1
+ प्रसंग --इस प्रकार भगवान् अपने दिव्य जन्मों के अवसर, हेतु और उद्देश्य का वर्णन करके अब .
2
+ उन wait की और उनमें a जाने वाले कर्मो at दिव्यता को aca से जानने का फल बतलाते F—
3
+
4
+ wa कर्म च मे दिव्यमेवं यो ata तत्त्वत: |
5
+ त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन । । ६ । ।
6
+
7
+ SK अलौकिक हैं--इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान
8
+
9
+ aa 8, बह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त
10
+
11
+ नहीं होता, किंतु मुझे Ef प्राप्त होता है ।। ६ ।।
12
+ Arjuna, My birth and activities are divine.
13
+
14
+ he who knows this in reality is not reborn on
15
+ leaving his body, but comes to Me. (9)
16
+
17
+ प्रसंग -इस प्रकार भगवान् के जन्म और कर्मो को aca से दिव्य समझ लेने का जो फल बतलाया
18
+ wart, वह अनादि परम्परा से चला आ रहा है--इस बात को स्पष्ट करने के लिये भगवान् Hed F—
19
+
20
+ वीतारागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता: |
21
+
22
+ बहवो ज्ञानतपसा GAT मद्भावमागता: । । १०।।
23
+
24
+ Ged भी, जिनके wT, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट .
25
+ हो गये थे और जो मुझ में अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते
26
+ x, ऐसे मेरे ona रहने वाले बहुत से भक्त उपुर्यक्त
27
+ ज्ञानरूप तपसे पवित्र होकर AL स्वरूप हो प्राप्त हो TH
28
+ ह ।। १5 ।।
29
+
30
+ Completely rid of passion, fear and anger,
31
+
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1
+ (ii) The Lord alone is to be worshipped, and that only by doings
2
+ one’s own duties. Any other worship or duty should be
3
+ abandoned.
4
+
5
+ (iii) Devotion to the Lord is the mean to which all the rest is
6
+ subservient;
7
+
8
+ (iv) The Lord is far different from the whole world and every-
9
+ thing is under His control. He is the Supreme being, perfect
10
+ in every excellence.
11
+
12
+ (v) The human being is obliged to perform his duties without
13
+ hoping for the fruits which he may get out of his perfor-
14
+ mance.
15
+
16
+ ‘Srimad Bhagavad Gita’ has been translated into several
17
+ languages, and each translation has been reviewed and com-
18
+ mented in different ways. But this edition of Bhagavad Gita has
19
+ its own distinction. It contains the original sanskrit text (shloka
20
+ by shloka) with its translation into Hindi as also in English. We
21
+ hope that this edition will enlighton not only those readers who
22
+ read it from religious view point, but also to those who want to
23
+ study this great literary work.
24
+
25
+ It has been brought out in comparatively bolder type so that
26
+ it can be easily read by readers of all ages.
27
+
28
+ New Delhi.
29
+ August 11, 1993 —publishers.
30
+ (Birth day of Lord Krishna)
31
+
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1
+ wholly absorbed in Me, depending on Me,
2
+ and purified by the penance of wisdom;
3
+ many have become one with Me even in the
4
+ past. (10)
5
+
6
+ प्रसंग --पूर्वं श्लोकों मैं भगवान् ने यह बात कही कि AY जन्म और कर्मो को जो Rex wae लेते
7
+
8
+ हं, उन area set को मेर प्राप्ति हो जाती है; इस पर यह जिज्ञासा होती है कि उनको आप es ।
9
+ प्रकार और किस रूप में मिलते है ? इस पर कहते है -- ४६
10
+ ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | ©,
11
+ मम amiga agen: पार्थ सर्वश: । । ११।।
12
+
13
+ सब प्रकार से At st art का अनुसरण aa
14
+ हैं. 1199 ।।
15
+ Arjuna, howsoever men seek Me; even so
16
+
17
+ do I approach them; for all men follow My
18
+ path in every way. (11)
19
+
20
+ प्रसंग --यदि यह बात है, तो फिर लोग भगवान् को न भजकर अन्य देवताओं की उपासना at
21
+ करते है ? इस पर कहते हैं--
22
+
23
+ काङ्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता: |
24
+ क्षिप्रं fe मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा । । ५२।।
25
+
26
+ WSS —
27
+
28
+
29
+
30
+ ८ =
31
+ १४
32
+
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1
+ ma से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती
2
+ S19 Il
3
+
4
+ In this world of human beings; men seeking
5
+ the fruition of their activities worship the
6
+ gods; for success born of actions follow
7
+ quickly. (12)
8
+
9
+ प्रसंग —at श्लोक में भगवान् के दिव्य जन्म और कर्मो को तत्त्व से जानने का फल भगवान् की
10
+ प्राप्ति बतलाया गया । उसके पूर्व भगवान् के जन्म की दिव्यता का विषय तो भलीभांति समझाया गया,
11
+ Pig भगवान् के कर्मो की दिव्यता का विषय स्पष्ट नहीं Eat; इसलिये अब भगवान् दो श्लोकों में अपने
12
+ सृष्टि-रचनादि कर्मो में कर्तापन, विषमता और स्पृहाका अभाव दिखलाकर उन कर्मो की दिव्यता का विषय
13
+ wad हैं--
14
+
15
+ aged मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
16
+ तस्य कर्तारमपि मां विद्धूयकर्तारमव्ययम् । । १२।। .
17
+
18
+ ब्राह्मण, क्षत्रिय, da AK शूद्र--इन चार वर्णो का
19
+ समूह, गुण और कर्मो के विभागपूर्वक At द्वारा रचा
20
+
21
+ AO
22
+
23
+ ES
24
+
25
+ WN
26
+
27
+ LEE
28
+ SS
29
+
30
+ S
31
+
32
+
33
+
34
+ =
35
+
36
+ LE
37
+
38
+ 3९2
39
+ द्
40
+ ट्
41
+
42
+ KSI
43
+
44
+ होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव H
45
+ अकर्ता ही जान ।। १३ ।।
46
+
47
+ The four orders of society (the Brahmana,
48
+
49
+ the Ksatriya, the Vaisya and the Sudra) were
50
+
51
+ created by Me classifying them according to |
52
+
53
+ the mode of Prakrti predominant in each and
54
+ apportioning corresponding duties to them;
55
+
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1
+
2
+
3
+ though the author of this creation, know Me,
4
+ the immortal Lord, to be a non-doer, (13)
5
+
6
+ TAT Bai fergie a A aha eer |
7
+ इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते 11981)
8
+
9
+ लिप्त नहीं करते--इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता
10
+ है, वह भी कर्मो से नहीं Fear ।। १४ ।।
11
+
12
+ Since I have no craving for the fruit of
13
+ acions; actions do not contaminate Me, Even
14
+ he who thus knows Me in reality is not bound
15
+ by actions. (14)
16
+
17
+ ah
18
+
19
+ FET RE STE TAT, ATA Ht A Rarer GA rer cee OAT at Heer ROT,
20
+ Oe FAG Gout & Sarererges eel sare Preserarea & af at & fet arabs at area 28
21
+ १८
22
+
23
+ एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि:।
24
+
25
+ कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम् । । १४ ।।
26
+ पूर्वकाल के मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर हीं
27
+ © | कर्म किये हैं । इसलिये तू भी पूर्वजो are सदा से किये
28
+ जाने वाले कर्मो को et कर ।। १५ ।।
29
+
30
+ ।। Having known thus, action was performed
31
+ -| even by the ancient seekers for liberation;
32
+
33
+ 109 श्रीमद्भगवद्गीता
34
+
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1
+ प्}181॰9£01'8, you also perform such action as
2
+ have been performed by the ancients from
3
+ the beginning of time. (15)
4
+
5
+ किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: |
6
+ तत्ते HA प्रवक्ष्यामि यज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽंशुभात् । । १६।।
7
+
8
+ कर्म क्या है ? AK अकर्म क्या है ?--इस प्रकार
9
+ इसका निर्णय करने में बुद्धिमान् पुरुष भी मोहित हो
10
+ समझाकर hen, जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात्
11
+ कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा ।। १६ ।।
12
+
13
+ What is action and what is inaction? Even
14
+ men of intelligence are puzzled over this
15
+ question. Therefore, I shall expound to you
16
+ the truth about action, knowing which you
17
+ will be freed from its evil effect (binding
18
+ nature). (16)
19
+
20
+ प्रसंग --यहाँ स्वभावत: मनुष्य मान सकता है कि शासत्रविहित करने ara कर्मो का नाम कर्म है
21
+ और क्रियाओं का स्वरूप से त्याग ax देना ही अकर्म है--इसमें मोहित होने की कौन-सी बात है और
22
+ Fe जानना क्या है ? किंतु इतना जान लेने मात्र से ही वास्तविक कर्म-अकर्म का निर्णय नहीं हो सकता,
23
+ कर्मो के तत्त्व को भलीभांति समझने Sl आवश्यकता है । इस भाव को स्पष्ट करने के लिये भगवान् Hed
24
+
25
+ +
26
+ कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण: |
27
+ अकर्मणश्यवोद्घव्यगहनाकर्मणोगति।।भ्प्र।।
28
+
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1
+ वत्र्र्मका स्वरूप भी जानना चाहिये और अकर्म का |
2
+ स्वरूप भी जानना चाहिये; तथा निषिद्ध SH का स्वरूप
3
+ भी जानना चाहिए: क्योंकि at ar गति गहन
4
+ है 1199 ।।
5
+
6
+ The truth about action must be known and
7
+ the ruth of inaction also must be known; even
8
+ so the truth about prohibited action must be
9
+
10
+ known. For mysterious are the ways of
11
+ action. (17)
12
+
13
+ प्रसंग --इस प्रकार श्रोता के अन्त:करण में रुचि GN wal उत्पन्न करने के लिये कर्मतत्त्व को et
14
+ एवं उसका जानना आवश्यक बतलाकर अब अपनी often के अनुसार भगवान् कर्मका तत्त्व asd
15
+
16
+ हैं--
17
+ कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।
18
+
19
+ a बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् | । १८ ।।
20
+
21
+ जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म
22
+ में कर्म देखता है, de मनुष्यों में बुद्धिमान् है और वह
23
+ योगी समस्त कर्मो को करने बाला है ।। १८ ।।
24
+
25
+ He who sees inaction in action, and action
26
+ in inaction, is wise among men; he is a yogi,
27
+ who has performed all action. (18)
28
+
29
+ प्रसंग --इस प्रकार कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म दर्शन का महत्त्व बतलाकरं अब oe श्लोक
30
+ में भिन्न-भिन्न शैली से उपर्युक्त कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्मं दर्शनपूर्वक कर्म करने art ra और
31
+ साधक Tor की असंगता का वर्णन करके उस विषय को स्पष्ट करते F—
32
+
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1
+ = =. og Sy SSS ३९ = SR = SANS
2
+ Fi ह US aS ॐ a >
3
+
4
+ Le
5
+
6
+ ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा: । । १६।।
7
+ जिसके सम्पूर्ण शासत्रसम्मत कर्म fear कामना और
8
+ संकल्प के ea हैं aa जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप
9
+
10
+ अग्नि के द्वारा भस्म हो गये हैं, उस महापुरुष को
11
+ ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं ।। १६ ।।
12
+
13
+ Even the wise call him a sage, whose
14
+ undertaking are all free from desire and thoughts
15
+ of the world, and whose actions are burnt up
16
+ by the fire of wisdom. (19)
17
+
18
+ त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रय: |
19
+
20
+ कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किचित्करोति a: । । २०।।
21
+
22
+ जो पुरुष समस्त Hal में और उनके Hat में Hake
23
+ का सर्वथा त्याग Hh संसार के आश्रय से रहित हो
24
+ Ta है और परमात्मा में नित्यतृप्त है, ae कर्मो में
25
+ Aerated बर्तता sar भी वास्तव में He भी नहीं
26
+ करता ।। २० ।।
27
+
28
+ He who, having totally given up attach-
29
+ ment to actions and their fruit, no longer
30
+ depends on the world, and is ever satisfied,
31
+ does nothing at all, though fully engaged in
32
+ action.
33
+
34
+ SSeS =
35
+
36
+ 1@)-.
37
+
38
+ 0 /
39
+
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1
+ GH.
2
+
3
+ हैरान्र aa
4
+ २९२ — n,n
5
+ २० << प
6
+
7
+ 4 7 #
8
+ तॆ २ ) ।
9
+ ५३१
10
+
11
+ १ #
12
+ Ki
13
+ Le
14
+ >
15
+
16
+
17
+ । =< न .
18
+
19
+ tip
20
+
21
+ ~« TSS
22
+
23
+ PURITY
24
+ ९६६४ :.
25
+
26
+ गयी कि ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार के बिना
27
+ केवल त्लोकसंग्रह के ford शासत्रसम्मत यज्ञ, दान और तप आदि समस्त कर्म करता EST भी ज्ञानी पुरुष
28
+ वास्तव 4 ae भी नहीं Hear! इसलिये ae कर्मबन्धन में नहीं पड्टता । इस पर यह प्रश्न उठता है कि
29
+ ज्ञानी को आदर्श मानकर ody प्रकार से कर्म करनेवाले साधक at नित्य-नैमित्तिकं आदि af का त्याग
30
+ नहीं करते, निष्कामभाव से wa प्रकार के शासत्रविहित कर्त्तव्य anf का अनुष्ठान करते ted है--इस कारण
31
+ वे किसी पाप के भागी नहीं बनते; fag जो साघक शासत्रविहित यज्ञ-दानादि कर्मो का अनुष्ठान न करके
32
+ केवल शरीर निर्वाह मात्र के लिये आवश्यक शौच-स्नान he खान-पान आदि कर्म ही करता है, ae at
33
+ पाप का भागी eter er | ऐसी शंका की निवृत्ति के लिये भगवान् कहते है--
34
+
35
+ निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह: |
36
+ शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् । । २१।।
37
+
38
+ जीता Sar है और जिसने समस्त APT Hr सामग्री का
39
+ परित्याग ax fear है, Car आशारहित पुरुष केवल
40
+ शरीर-सम्बन्धी कर्म HCA SAT HT पाप को नहीं प्राप्त
41
+ होता ।। २१ ।।
42
+
43
+ Having subdued his mind and body, and
44
+ given up all objects of enjoyment, and free
45
+ from craving; he who performs sheer bodily
46
+ actions, does not incur sin. (21)
47
+
48
+ प्रसंग --उपर्युक्त श्लोकों में यह बात सिद्ध की गयी कि परमात्मा को प्राप्त सिद्ध Terres का तो
49
+ कर्म करने या न करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा ज्ञानयोग के साधक का ग्रहण SA त्याग शासत्रसम्मत,
50
+ आसक्तिरहित और ममतारहित erat है; अत: वे कर्म करते हुए या उनका एयाग करते हुए--सभी अवस्थाओं
51
+ 4 कर्मबन्घन से aden मुक्त Fl अब भगवान् यह बात दिखलाते & कि कर्म मैं अकर्मदर्शन पूर्वक कर्म
52
+ करने वाला कर्मयोगी tt asters में नहीं पडता--
53
+
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1
+ सम.सिद्बावसिदौचकृज्यापिननिवघ्यते।।सा।
2
+
3
+ जिसमें get का सर्वथा अभाव हो गया है, जो
4
+ हर्ष-शोक आदि a-al से सर्वथा अतीत हो war
5
+ है--ऐसा fafa aie असिद्धि में aa रहने वाला
6
+ कर्मयोगी कर्म करता Sar भी उनसे नहीं SAT ।। २२ ।।
7
+
8
+ The Karmayogi, who is contented with
9
+ whatever is got unsought, is free from jealousy
10
+ and has transcended all pairs of opposites
11
+ (like joy and grief), and is balanced in success
12
+ and failure, is not bound by his action. (22)
13
+
14
+ प्रसंग —aet यह प्रश्न उठता है किं उपर्युक्त प्रकार से किये हुए कर्म बन्धन Bg नहीं बनते, इतनी
15
+ & aa है या उनका और भी Ge महत्व है । इस पर कहते है--
16
+
17
+ गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस: |
18
+ यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते । । २३।।
19
+
20
+ जिसकी arate सर्वथा ase हो गयी है, जो
21
+ देहाभिमान six ममता से ced हो गया हडै, जिसका
22
+ चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है--ऐसे
23
+ केवल यज्ञ सम्पादन के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के
24
+ न्धांकर्मभलीमाँतियिलीनहोजातेहैं ।। २३ ।।
25
+
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1
+
2
+ 6 ।।
3
+
4
+
5
+ ।।
6
+
7
+
8
+ .
9
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10
+ (हि
11
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12
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13
+ am
14
+
15
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16
+
17
+ ees Ast
18
+ te
19
+
20
+ ३३ i w=
21
+ a oe OE
22
+
23
+ ८२ । —~
24
+ ॥ Nd J doe
25
+ SS
26
+
27
+ # ह- ९ ॰॰ १२९० २ १ स ८८ 6
28
+ a हनिसिरस्दिर ण QO eee LA eg FPO?
29
+
30
+ attachment, who has no identification with
31
+ the body and does not claim it as his own,
32
+ whose mind is established in the Knowledge
33
+ of Self and who works merely for the sake of
34
+ sacrifice. । (23)
35
+
36
+ प्रसंग --पूर्वं श्लोक Fae बात कही गयी कि यज्ञ के fea कर्म करने वाले Gor के समस्त कर्म
37
+ feet हो one हैं | aet केवल अग्नि में हविका cay करना हीं यज्ञ है और उसके सम्पादन करने के
38
+ fered की जाने वाली क्रिया ह्री यज्ञ के लिये कर्म करना है, इतनी ह्री बात नहीं है; वर्ण, आश्रम, स्वभाव
39
+ और परिस्थिति के अनुसार जिसका जो कर्तव्य है; वही उसके लिये ag है और उसका पालन करने के
40
+ लिये आवश्यक क्रियाओं का Parl बुद्धि से लोकसंग्रहार्थ करना ही उस यज्ञ के ford कर्म करना है--इसी
41
+ भावको सुस्पष्ट HCA के लिये अब भगवान् सात श्लोकों में भिन्न-भिन्न योगियों द्वारा किये जाने वाले परमात्मा
42
+ की प्राप्ति के साधन रूप शाख्रविहितं कर्तव्य-कर्मो का विभित्न ast के नाम से वर्णन करते हैं--
43
+
44
+ ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा FAT |
45
+ wea तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना । । २४।।
46
+
47
+ जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात् स्रुवा आदि भी ब्रह्म है
48
+ और हवन किये जाने ara द्रव्य भी ब्रह्म हैं तथा
49
+ ब्रह्मरूप Ha के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना
50
+ eq far भी ब्रह्म है--उस ब्रह्म कर्म में स्थितं रहने
51
+ वाले योगी art प्राप्त किये जाने ara we भी ब्रह्म
52
+ ae ।। २४ ।।
53
+
54
+ In the practice of seeing Brahma every-
55
+ where as a form of sacrifice Brahma is the
56
+ ladle (with which the oblation is poured
57
+ into the fire, etc.,); Brahma, again, is the
58
+ oblation; Brahma is the fire, Brahma itself
59
+
60
+
61
+ = vAN. > ल् bal ८2 । ।
62
+
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1
+ =~ Ss ss -
2
+ भू t= = ट
3
+ रु ८८६८ ६
4
+
5
+ the sacrificer, and so B a itself consti-
6
+ tutes the act of pouring the oblation into the
7
+ fire. And finally Brahma is the goal to be
8
+ reached by him who is absorbed in Brahma as
9
+ the act of such sacrifice. (24)
10
+
11
+ wet 5 We we Bre a wohE BS ora aT sees A Za Gra BH UT wT
12
+ OR आत्मा-परमात्मा के अभेददर्शन रूप यज्ञ का वर्णन करते F—
13
+
14
+ दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते।
15
+
16
+ ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं गयज्ञेनैवोपजुह्मति । । २५।।
17
+ दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का St
18
+ AHA अनुष्ठान किया करते हैं SR Seq योगीजन
19
+ परब्रह्म परमात्मा रूप afta में ate दर्शन रूप यज्ञ
20
+
21
+ के द्वारा ही आत्म रूप यज्ञ का हवन किया करते
22
+ हैं ।। २५ Il
23
+
24
+ Other yogis duly offer sacrifice only in
25
+ the shape of worship to gods. Others pour
26
+ into the fire of Brahma the very sacrifice in
27
+ the shape of the self through the sacrifice
28
+ ‘known as the perception of identity. (25)
29
+
30
+ प्रसंग ~-इस प्रकार Saas और अभेददर्शन रूप यज्ञ का वर्णन करने के अनन्तर अब इन्द्रिय संयम
31
+ रूप ay का और faa हवन रूप का वर्णन करते F—
32
+
33
+ श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु Zale |
34
+ शब्दादीन्विषयानन्य इन्दियाग्निषु
35
+
36
+
37
+ Br :
38
+
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1
+ श्रींमात्मन्नैअर्जुनकोनिमित्तक्ताकासश्लाक्खिकोश्रौगौताकंप्तामेंजोष्णाण्यंश
2
+ Rar डै, ae अघ्याय उसकी अवतारणा के रूप में है । get Set ओर के प्रधान-प्रधान Ararat के नाम
3
+ क्खिणौर्कगामुखाक्याअर्जुनर्कदन्यृनक्शकीआर्शकाप्तेउत्पग्पोस्फीवळ्ळिकास्फीध्।
4
+ इसलिये इसका नाम `अर्जुन-विषाद-योग` ven गया है।
5
+
6
+ प्रसंग — पाण्डवाँ के राजसूय यज्ञ Ft उनके महान् ऐश्वर्य को देखकर दुर्योधन के मन मॆ ast भारी
7
+ जलन पैदा हो गयी ate उन्होंने शकुनि आदि A सम्मति से Gor खेलने के लिए युधिष्ठिर को बुलाया
8
+ dic wa से उनको हराकर उनका सर्वस्व हर लिया । ora में यह निश्चय gar कि युधिष्ठिरादि otet
9
+ ong द्रौपदी-सहित बारह वर्ष मै वन मै रहें और एक साल छिपकर रहें: इस प्रकार तेहर वर्ष तक समस्त
10
+ राज्यपरढुयोंफ्नफाअक्खिरठेओरपाण्डयोंकंएकसालफेफ्याफाभेढनखुतक्तातो
11
+ age af के बाद पाण्डवाँ का wea Se cher Rear जाय | इस निर्णय के अनुसार ae साल बिताने के
12
+ बाद जव पाण्डवां ने अपना राज्य वापस माँगा तब दुर्योधन ने साफ इन्कार कर दिया । तब SPT ओर
13
+ a युद्ध की तैयारी होने aT
14
+
15
+ भगवान् श्रीकृष्ण को रण-निमन्त्रण देने के लिये दुर्योधन Ge अर्जुन द्वारका पहुँचे | -भगवान् अपने
16
+ भवन att रहे थे । दुर्योघन उनके सिरहाने एक मूल्यवान् आसन पर जा बैठे और अर्जुन et wre जोड्कर
17
+ नम्रता के साथ SAS ait के सामने खटड्टे हो गये । जागते ही श्रीकृष्ण ने अपने सामने अर्जुन को देखा
18
+ aie फिर पीछे A ओर मुड्कर देखने पर सिरहाने की ओर बैठे ee दुर्योधन दीख VS । भगवान् श्रीकृष्ण
19
+ ने Sat का स्वागत-सत्कार किया ote उनके आने का कारण JT | तब दुर्योधन ने कहा--`मुझमॆ और
20
+ अर्जुनमेंआक्काएऴ्साहीप्नेमदैओरत्मद्वौनोंहोंआपफेसंर्यंघीध्;परंतुक्याकंपास्थाइलेथअम्पा
21
+ रृ,शोफ्यामेंक्काव्राफ्हींप्तान्धांमेंश्रेष्ठओय्र्व्यहैं,श्यतिषॆस्यांमॆरीध्रे
22
+ सहायता करनी चाहिये | भगवान् ने कहा--नि:सन्देह, आप पहले आये हैं; परंतु A पहले अर्जुन को
23
+ & देखा है । मैं दो प्रकार से सहायता SST! एक ओर AD अत्यन्त बलशालिनी नारायणी-सेना WA
24
+ और दूसरी GH, युद्ध न करने का प्रण करके, अकेला रहूंगा, मै शसत्र का प्रयोग नहीं केगा । अर्जुन !
25
+ धर्मानुसार पहले तुम्हारी gear of होनी चाहिये; अतएव etait में से जिसे पसंद करो, माँग लो |` अर्जुन
26
+ नेशत्रुनाशननश्याण्याश्रीवूत्माकौमाँधलिया।त्स्वदुर्मोघननेउनकौनस्यांश्वेनामाँपली।
27
+
28
+ war ने अर्जुन से पूछा--`अर्जुन ! जब मैं ga ��ी नहीं BST, तब तुमने क्या TAT
29
+ नारायणी-सेना को ats Rar और मुझ को स्वीकार लिया ?` अर्जुन ने कहा--`भगवन् ! आप अकेले ह
30
+ सबका नाश करने में समर्थं हँ, तव Sar लेकर क्या करता ?` भक्तवत्सल भगवान् ने अर्जुन के इच्छानुसार
31
+
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1
+ अन्ययोगीजन इन्दियोकोसयम
2
+ रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं और दूसरे योगी
3
+ art शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नियों
4
+ में हवन far करते हैं ।। २६ ।।
5
+
6
+ Others offer as sacrifice their senses of
7
+ hearing etc., into the fires of self-discipline.
8
+ Other yogis, again, offer sound and other
9
+ objects of perception into the fires of the
10
+ senses, (26)
11
+
12
+ प्रसंग --अब आत्मसंयमयोग रूप यज्ञ का वर्णन करते B—
13
+
14
+ सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि art |
15
+
16
+ आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्यति ज्ञानदीपिते । 12911
17
+
18
+ दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं को और orsit की
19
+ समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योग रूप अग्नि
20
+ में हवन किया करते हैं ।। २७ ।।
21
+
22
+ Others sacrifice all the functions of their
23
+ senses and the functions of the vital airs
24
+ into the fire of Yoga in the shape of self-
25
+ control, kindled by wisdom. (27)
26
+
27
+ WaT --इस प्रकार समाघियोग के साधन को यज्ञ का रूप देकर अब अगते श्लोक H द्रव्य यज्ञ,
28
+ तपोयन्ञ, योगयज्ञओरत्वाम्यायस्मक्कायज्ञकास्रंक्षेपमेंस्फीक्तोहैं-
29
+
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1
+ स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता: । । २८।।
2
+
3
+ कई पुरुष द्रव्य सम्बन्धी यज्ञ करने वाले हैं, कितने
4
+ el तपस्यारूप यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ह्री
5
+ योग रूप यज्ञ करने वाले & और fest ही अहिंसादि
6
+ तीक्ष्ण aAdt से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्याय ST ज्ञान
7
+ यज्ञ करने वाले हैं ।। २८ ।।
8
+
9
+ Some perform sacrifice with material
10
+ possessions; some offer sacrifice in the shape
11
+ of austerities; others sacrifice through the
12
+ practice of Yoga; while some striving souls,
13
+
14
+ observing austere vows, perform sacrifice in
15
+ the shape of wisdom through the study of
16
+ sacred texts. (28)
17
+
18
+ प्रसंग --द्रव्ययज्ञादि चार प्रकार के ast का संक्षेप H वर्णन करके अब दो श्लोकों में प्राणायाम रूप
19
+ ast का वर्णन करते हुए सब प्रकार के यज्ञ करने वाले साघकों की प्रशंसा करते F—
20
+
21
+ अपाने Felt AT प्राणेऽपानं तथा परे।
22
+ प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा: । । REI
23
+ amt नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु gate |
24
+ सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा: | 1211
25
+
26
+ दूसरे feat ef योगी जन अपानवायु में प्राणवायु
27
+
28
+ चतुर्थ ञघ्याय 118
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1
+ अन्ययोगीजनप्राणवायुं
2
+ मॆअफावायुकोह्रवनकातेहैतथाअन्यक्तिनेही
3
+ नियमित Ae करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष
4
+ प्राण और अपान al गति को रोककर प्राणो को UVF
5
+ में el हवन far करते हैं । ये सभी साधक sit द्वारा
6
+ पापोकानाशकांदेनेक्योंऔरयज्ञोकोजाननेवाले
7
+ हैं ।। २६-३० II
8
+
9
+ Other yogis offer the act of exhalation
10
+ into that of inhalation even; so others, the
11
+ act of inhalation into that of exhalation.
12
+ There are still others given to the practice
13
+ of Pranayama (breath-control), who having
14
+ regulated their diet and controlled the processes
15
+ of exhalation and inhalation both pour their
16
+ vital airs into the vital airs themselves. All
17
+ these have their sins consumed away by sacrifice
18
+ and understand the meaning of sacrificial
19
+ worship. (29,30)
20
+
21
+ प्रसंग --इस प्रकार यज्ञ करने वाले साधकों की प्रशंसा करके अब उन ast के करने a होने वाले
22
+ लाभ और न करने से होने वाली हानि दिखलाकर भगवान् उपर्युक्त प्रकार से यज्ञ करने की आवश्यकता
23
+ का प्रतिपादन करते F—
24
+
25
+ यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् |
26
+ न।यंलोकोऽस्त्ययज्ञस्यद्रुप्तोज्यय्कुस्नात्तम।।रॊ।।
27
+
28
+ j eS Ex LD ८222
29
+
30
+ 119
31
+
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1
+ को प्राप्त होते हैं । और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिये
2
+ dl यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक
3
+ he सुखदायक हो सकता है ? 1139 ।।
4
+
5
+ Arjuna, Yogis who enjoy the nectar that
6
+ has been left over after the perfornance of a
7
+ serifice attain the eternal Brahma, To the
8
+ man who does not offer sacrifice, even this
9
+ world is not happy; how, then, can the other
10
+ world be happy? (31)
11
+
12
+ प्रसंग -सोलहवें श्लोक में भगवान् ने यह aret कही धी कि H तुम्हें वह कर्मतत्त्व बतलाऊँगा, जिसे
13
+ जानकर तुम अशुभ से मुक्त हो जाओगे | उस प्रतिज्ञा के अनुसार ores श्लोक से set TH उस कर्मतत्त्व
14
+ का वर्णन करके अब उसका उपसंहार Bat F—
15
+
16
+ एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
17
+ कर्मजान्विद्धि तान्सवनिवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे । । ३२।।
18
+
19
+ इसी प्रकार SIX HT बहुत तरह के Gat वेद HT वाणी
20
+ में विस्तार से He WA हैं । उन सब को TAM, Shea
21
+ AK शरीर की क्रिया SRT GIA होने वाले AM, Fa
22
+ Tat तत्त्व से जानकर GG अनुष्ठान द्वारा तू
23
+ कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हो जायेगा ।। ३२ ।।
24
+
25
+ Many such forms of sacrifice have been
26
+ set forth in detail through the mouth of the
27
+
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1
+ Vedas; know them all as involving the action
2
+ of mind, senses and body. Thus knowing
3
+ the truth about them you shall be freed
4
+ from the bondage of action (through their
5
+ performance). (32)
6
+
7
+ प्रसंग — उपर्युक्त प्रकरण में भगवान् ने कई प्रकार के यज्ञां का वर्णन किया और ae बात भी कही
8
+ कि इनके सिवा sire भी बहुत-से ag ae-greit F बतलाये गये है; इसलिये aet ae जिज्ञांसा होती है
9
+ कि उन ast मै से कौन-सा यज्ञ श्रेष्ठ है । इस पर भगवान् कहते हैं--
10
+
11
+ श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ञानयज्ञ WAT |
12
+ wa कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते । । ३३।।
13
+
14
+ हे परन्तप अर्जुन ! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ
15
+ अत्यन्त श्रेष्ठ है, Ta यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में
16
+
17
+ समाप्त हो जाते हैं ।। ३३ ।।
18
+
19
+ Arjuna, sacrifice through Knwoledge is
20
+ superior to sacrifice performed with material
21
+ things. For all actions without exception
22
+ culminate in Knowledge, O son of Kunti. (33)
23
+
24
+ प्रसंग --इस प्रकार ज्ञान यज्ञ की और उसके फलरूप ज्ञान की प्रशंसा करके अब भगवान् दो श्लोकों
25
+ में ज्ञान को प्राप्त करने के लिये अर्जुन को आज्ञा देते हुए उसकी प्राप्ति का art और उसका फल बतलाते
26
+
27
+
28
+ data प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
29
+ उपदेक्ष्यन्ति ते AA ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: । । ३४।।
30
+
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1
+ 3 42 क2>> OSS S777
2
+
3
+ ८ र्ह
4
+
5
+ 7
6
+
7
+ Saat Va करने से A कपट छोड्कर सरलतापूर्वक ङ्मुन्धिंटं
8
+ प्रश्न HA से वे परमात्मतत्त्व को AeA जानने वाले ट्टु/
9
+ ant Here gi sa aad aM a ste
10
+
11
+ करेंगे ।। ३४ ।।
12
+
13
+ Understand the true nature of that
14
+ Knowledge by approaching illumined soul. If
15
+ you prostrate at their feet, render them
16
+ service, and question them with an open and
17
+ guileless heart, those wise seers of Truth will
18
+ instruct you in that Knowledge. (34)
19
+
20
+ wae न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
21
+ येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि । KI
22
+ जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं
23
+ प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन ! जिस ज्ञान के द्वारा तू सम्पूर्ण
24
+
25
+ भूतो को नि:शेष भाव से पहले अपने में और पीछे मुझ
26
+ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में SET ।। ३५ ।। ।
27
+
28
+ Arjuna, when you_ have reached
29
+ enlightenment, ignorance will delude you no
30
+ more. In the light of that Knowledge you will
31
+ see the entire creation first within your own
32
+ self, and then in Me (the Oversoul). (35)
33
+
34
+ - IZ QDQ}q IW:
35
+
36
+ aged अध्याय 122
37
+
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1
+ /,’,- भि => / । - een: सि
2
+
3
+
4
+
5
+ प्रसंग ~-इस प्रकार गुरुजनों से तत्त्वज्ञान सीखने की विधि और उसका फल बतलाकर अब उसका
6
+ Hees बतलाते हैं--
7
+
8
+ अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
9
+ ad ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि । । ३६।।
10
+
11
+ यदि तू अन्य as पापियों से भी अधिक पाप करने
12
+ वाला है; तो भी तू ज्ञान-रूप नौका द्वारा नि:संदेह सम्पूर्णं
13
+ पाप-समुद्र से seats तर जायेगा ।। ३६ ।।
14
+
15
+ Even though you were the foulest of all
16
+
17
+ sinners, this Knowledge alone would carry
18
+ you, like a raft, across all your sin. (36)
19
+
20
+ प्रसंग -कोई भी दृष्टान्त परमार्थ विषय को पूर्ण रूप से नहीं aan सकता, उसके एक अंश को
21
+ ही समज्ञाने के fort उपयोगी होता है; अतएव पूर्व श्लोक मैं बतलाये हुए ज्ञान के महत्त्व को afta के
22
+ Gert से पुन: स्पष्ट करते हैं--
23
+
24
+ यथैधांसि समिद्घोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |
25
+ ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा । । ३०।।
26
+
27
+ क्योंकि हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को
28
+ भस्ममय कर देता है, वैसे St ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्णं
29
+ कर्मो को भस्ममय कर देता है ।। ३७ ।।
30
+
31
+ न्न् =* ॐ: ८78 न द् ge ८८८ LAE Pa ane io ट ॥ ६८८ a 7
32
+ न र # LES । कक ॥ हं ae St] Cd SO mn । र्गि
33
+ FR i उ २ SINS र्व Ss. न सि २ २० ae SoS
34
+ *
35
+
36
+ For as the blazing fire turns the fuel to
37
+ ashes, Arjuna, even so the fire of Knwoledge
38
+ turns all actions to ashes. (37)
39
+
40
+ SRR,
41
+
42
+ भॊ ।
43
+ है
44
+
45
+ ee SS ee SS DE Ne SS
46
+ Las
47
+
48
+ 123 श्रीमद्भगवद्गीता
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1
+ ENS SS
2
+ Uy Uy @xZ j 2
3
+
4
+ । प्रसंग --इस प्रकार aided श्लोक से यहाँ तक तत्त्वज्ञानी महापुरुषां at Gar आदि करके तत्त्वज्ञान
5
+ को प्राप्त करने के लिये He कर भगवान् ने उसके फल का वर्णन करते SU उसका माहात्म्य बतलाया।
6
+ इस पर ae जिज्ञासा होती है कि ae तत्त्वज्ञान ज्ञानी महापुरुषां से श्रवण करके विधि पूर्वक मनन और
7
+ निदिध्यासनादि ज्ञान योग के साधनों द्वारा at प्राप्त किया जा सकता है या इसकी प्राप्ति का कोई दूसरा
8
+ art भी है; इस पर अगले श्लोक में पुन: उस ज्ञान की महिमा प्रकट करते EE भगवान् कर्मयोग के द्वारा
9
+ भी वही ज्ञान अपने-आप प्राप्त होने की बात Ged F—
10
+
11
+ न हि ज्ञानेन wet पवित्रमिह feed
12
+ dead योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति | । ३८ ।
13
+
14
+ नि:संदेह He भी नहीं है | Sa ज्ञान को कितने et काल
15
+ से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्त:करण sat AWS
16
+ अपने-आप ही आत्मामें पा लेता है ।। ३८ ।।
17
+
18
+ On earth there is no purifier as great
19
+ as Knowledge, he who has attained purity
20
+ of heart through a prolonged practice of
21
+ Karmayoga automatically sees the light of
22
+ Truth in the self in course of time. (38)
23
+
24
+ प्रसंग -इस प्रकार तत्त्व ज्ञान की महिमा Het BT उसकी प्राप्ति के सांख्ययोग और कर्मयोग--दो
25
+ उपाय बतलाकर, अब भगवान् उस ज्ञान की प्राप्ति के पात्र का निरूपण करते BL उस ज्ञान का फल परम
26
+ शान्ति की प्राप्ति बतलाते हैं-- २
27
+
28
+ श्रद्धावाल्लभते AA तत्पर: संयतेन्द्रिय: |
29
+ AA Wea परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति | । ३६ ।।
30
+
31
+ S<KZ bj}
32
+
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1
+ शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।। ३६ ।।
2
+
3
+ He who has mastered his senses, is
4
+ exclusively devoted to his practice and is
5
+ full of faith, attains Knowledge; having
6
+ had the revelation to Truth, he immediately
7
+ attains supreme peace (in the form of God-
8
+ Realization), (39)
9
+
10
+ प्रसंग --इस प्रकार श्रद्धावान् को ज्ञान की प्राप्ति और उस ज्ञान से परम शान्ति की प्राप्ति बतलाकर
11
+ अब ar और विवेकहीन संशयात्मा की निन्दा करते F—
12
+
13
+ अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति |
14
+ नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन: । । HHI
15
+
16
+ विवेकहीन Sk sand संशययुक्त मनुष्य
17
+ ware से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है । ऐसे संशययुक्त
18
+ मनुष्य के लिये न यह लोक है, न परलोक है और न
19
+ सुख es ।। ४० ।।
20
+
21
+ He who lacks discrimination, is devoid of
22
+ faith, and is at the same time possessed by
23
+ doubt is lost to the spiritual path. For the
24
+ doubting soul there is neither this world nor
25
+ the world beyond, nor even happiness. (40)
26
+
27
+ wea ee eae wafaae othe crater afte agra a art mifte H ares wae, ore
28
+ विवेक द्वारा संशय का नाश करके कर्मयोग का अनुष्ठान करने मॆ अर्जुन का उत्साह उत्पन्न करने के लिये
29
+ संशयरहित तथा वश में किये हुए अन्त:करण वाले कर्मयोगी की प्रशंसा करते है--
30
+
31
+ > कज्
32
+
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1
+ आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय । । ४१।।
2
+
3
+ हे धनंजय ! जिसने कर्मयोग at fafa से समस्त
4
+ कर्मो का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने
5
+ विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर fear है, ऐसे
6
+ वश में किये हुए अन्त:करण वाले पुरुष को कर्म नहीं
7
+ ‘arad ।। ४१ ।।
8
+
9
+ Arjuna, actions do not bind him who has
10
+ dedicated all his actions to God according to
11
+ the spirit of Karmayoga, whose doubts have
12
+
13
+ been torn to shreds by wisdom, and who is
14
+ self-possessed. (41)
15
+
16
+ य Pj OY
17
+
18
+ 3S
19
+ LP prety Fe ह
20
+ /॰ट्टु,न्नू/ १ सु
21
+
22
+ ~
23
+ ५ ५
24
+
25
+ न्दि
26
+
27
+ = bow
28
+
29
+
30
+ =
31
+
32
+ a 2 ie)
33
+
34
+ BEGG Pa ह ४
35
+
36
+ प्रसंग sa प्रकार कर्मयोगी at प्रशंसा करके अब अर्जुन को कर्मयोम में स्थितं होकर युद्ध करने
37
+ की आज्ञा देकर भगवान् इस अध्याय का STE करते F—
38
+
39
+ ‘Read a योगमातिष्ठोत्तिष्ठ ard Ril
40
+
41
+ इसलिये & भरतवंशी aga ! तू हृदय में Raa ga
42
+ अज्ञानजनित aay संशय का विवेक ज्ञान रूप तलवार
43
+ द्वारा Bad SH समत्वरूप कर्मयोग में Raa हो जा
44
+ और FE के लिये GST हो जा ।। ४२ II
45
+
46
+ ’1`}161॰6£01॰8, र्प्]प्…थ्, 8188}॥॥ष्टु to piecert with
47
+
48
+ Neen pe een
49
+
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1
+ उक्योंस्यफेपोम्रेर्पोफ्लेकाप्ताखीस्राक्खि।इसींग्धार्कअक्याण्याश्रीकृष्ण र्कशापि
2
+ at और युद्धारम्भ के समय कुरुक्षेत्र F उन्हें गीता का दिव्य उपदेश Gara! अस्तु । =
3
+
4
+ जिस समय seit ओर की सेना एकत्र ह्मो चुकी थी, उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं हस्तिनापुर
5
+ जाकर हर तरह से दुर्योधन को समझाने की Seer st; परंतु Gels ere कह दिया--`मॆरॆ जीते-जी पाण्डव
6
+ कदापि राज्य नहीं पा सकते, यहाँ तक कि सू की नोक भर जमीन F पाण्डवाँ को नहीं Ear ae अपना
7
+ न्यायोचित स्वत्व प्राप्त करने के लिये पाण्डवां ने धर्म समझकर qa के लिये निश्चय ax लिया।
8
+
9
+ wa tet ओरं से युद्ध की पूरी तैयारी et गयी, तब भगवान् वेदव्यास जी ने घृतराष्ट्र के समीप
10
+ आकर उनसे कहा--`ये सञ्जय TS Ta का सब Fara सुनावेंगे | Ga की समस्त घटनावलियों को ये
11
+ प्रत्यक्ष ta, सुन और जान wat |
12
+
13
+ महर्षि वेदव्यास ज्ञी के set ort के बाद धृतराष्ट्र के पूछने पर सञ्जय Se पृथ्वी के विभिन्न Act
14
+ का वृत्तान्त Tae रहे, उसी F उन्होंने भारत वर्ष का भी वर्णन किया | तदनन्तर जब कौरव-पाण्डवाँ का
15
+ युद्ध आरम्भ हो गया और लगातार दस at तक युद्ध होने पर पितामह भीष्म रणभूमि F रथ से गिरा
16
+ दिये गये, TS सञ्जय ने धृतराष्ट्र के पास आकर SS अकस्मात् भीष्म के मारे जाने का समाचार सुनाया
17
+ (Feo भीष्म० 93) | उसे सुनकर घृतराष्ट्र को ast ही दु:ख हुआ और युद्ध की सारी बातें विस्तार a
18
+ सुनाने के लिये Ses सञ्जय से कहा, Ts सञ्जय ने दोनां ओर की सेनाओं की व्यूह-रचना आदि का
19
+ वर्णन किया | इसके बाद घृतराष्ट्र ने विशेष विस्तार के साथ आरम्भ से अब तक की पूरी घटनाऐं जानने
20
+ के लिए सञ्जय से प्रश्न किया । यहीं से श्रीमद्र्भगवद्गीता का पहला अध्याय आरम्भ होता है | महाभारत,
21
+ भीष्म of में यह पचीसवाँ अध्याय है । इसके आरम्भ में धृतराष्ट्र सञ्जय से प्रश्न करते है--
22
+
23
+ When all efforts of preventing the war between Kauravas and Pandavas
24
+ failed and subsequently both sides had thoroughly prepared to start
25
+ the battle in Kuruksetra, the sage Vedavyasa asked Dhratrastra, the
26
+ King and the father of Duryodhana, if he would like to see the terrible
27
+ camage sothat he could make a gift of transcendent vision (as King
28
+ Dhratrastra was visually handicaped otherwise), Dhratrastra replied :
29
+ “O Mahrishi. | have no desire to see with my own eyes this slaughter
30
+ of my own family, but would like to hear all the events of the battle.”
31
+ Thereupon Vedavyasa conferred the gift of divine vision on Sanjaya,
32
+ a truusty counsellor of Dhratrastra, and told that Sanjaya would
33
+ describe all the happenings of the war even while sitting with King
34
+ Dhratrastra.
35
+ The text of SRIMAD BHAGAVAD GITA:s mostly based upon ques~
36
+ tions and anwers between King Dhratrastra and Sanjay, and betweeri
37
+ Arjuna and Lord Krishna.
38
+ FIRST chapter thus starts with Dhratrastra’s question to Sanjaya in
39
+ the eh terms ;-
40
+
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1
+ A
2
+
3
+ the sword of wisdom, this doubt in your heart,
4
+ born of ignorance, establish yourself in karma-
5
+ yoga in the shape of even-temperedness,
6
+ and stand up for the fight. (42)
7
+
8
+ & weahehe stonsercherestrnng eafterat stuart seeretatnt
9
+ ज्ञानकर्मसंन्यासयो गो नाम aqatstara: ।। ४ ।।
10
+
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1
+ इस पञ्चम अध्याय में कर्मयोग-निष्ठा और सांख्ययोग-निष्ठा का वर्णन है, सांख्ययोग का &
2
+ पर्यायवाची sex `संन्यास` है । इसलिये इस अध्याय का नाम `कर्म-संन्यासयोग` रखा गया डै।
3
+
4
+ wat -भगवान् के श्रीमुख से & `ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हवि:`, `ब्रह्माग्नावपरे ast यज्ञेनैवोपजुहृति`, `तद्विद्धि
5
+ प्राणिपातेन` आदि seit द्वारा ज्ञानयोग sat कर्मसंन्यास की भी प्रशंसा अर्जुन ने atl इससे अर्जुन
6
+ ae निर्णय नहीं ax सके कि इन दोनों में से मेरे लिये कौन-सा साधन श्रेष्ठ है । अतएव अब भगवान्
7
+ के श्रीमुख से ही उसका निर्णय कराने के उद्देश्य से अर्जुन उनसे प्रश्न करते है--
8
+
9
+ ता # > as ॥
10
+
11
+ >
12
+ ~ ~
13
+
14
+ Tey एतयोरेकं तन्मे ae सुनिश्चितम् । । १ ।।
15
+
16
+ अर्जुन बोले--हॆ कृष्ण ! arg कर्मो के संन्यास ar
17
+ और fax कर्मयोग की प्रशंसा wea हैं । इसलिये इन
18
+ दोनों में से जो एक मेरे लिये aefsifa निश्चित
19
+ कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिये 119 ।।
20
+
21
+ Arjuna said Krsna, you extol sankhyayoga
22
+ (the Yoga of knowledge) and thei the yoga
23
+
24
+ of Action. Pray tell me which of the two is
25
+ decidedly conducive to my good. (1)
26
+
27
+ ~~
28
+
29
+ SSS
30
+
31
+ VOOR
32
+
33
+ =
34
+ ह ॥ ऽट
35
+
36
+ ~
37
+
38
+ प्रसंग --अब भगवान् अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देते F—
39
+
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1
+ में भी कर्म dere a कर्मयोग aes में सुगम होने
2
+ से श्रेष्ठ है ।। २ ।।
3
+
4
+ Sri Bhagavan said : The Yoga of Knowledge
5
+ and the Yoga of Action both lead to supreme
6
+ Bliss. Of the two, however, the Yoga of Action
7
+ (being easier of practice) is superior to the
8
+ Yoga of Knowledge. (2)
9
+
10
+ प्रसंग --सांख्ययोग की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ बतलाया | अब उसी are को fra करने के लिये
11
+ अगले श्लोक में कर्मयोगी at प्रशंसा करते है--
12
+
13
+ ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न देष्टि न काङ्क्षति |
14
+ निर्द्वन्वो हि महाबाहो Fa बन्धात्प्रमुच्यते।। ३।।
15
+
16
+ हे अर्जुन ! जो gos न किसी से ou करता है और
17
+ न किसी की आकांक्षा करता है, ge कर्मयोगी सदा
18
+ से ted Fou सुखपूर्वक संसार बन्धन से मुक्त हो जाता
19
+ है ।। ३ II
20
+
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1
+ The Karmayogi who neither hates nor
2
+ desires should be ever considered a renouncer.
3
+ For, Arjuna, he who is free from the pairs of
4
+ opposites is easily freed from bondage. (3)
5
+
6
+ प्रसंग --साधन में सुगम होने के कारण सांख्ययोग की अपेक्षा कर्मयोग को Aes सिद्ध करके अब
7
+ ण्यादूण्रेलोकमेंपोनोंनिष्णओंकांजोएकणैस्नानिमोप्ता-फ्याक्काफ्याघुफेध्क्को
8
+ के अनुसार दो श्लोकों मॆ Sat निष्ठाओं की wer F एकता का प्रतिपादन at हैं--
9
+
10
+ सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता: |
11
+ एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् । । ४।।
12
+
13
+ उपर्युक्त dare ak कर्मयोग को ad लोग
14
+ पृथक्-पृथक् फल देने वाले Hed हैं न fH पण्डित जन,
15
+ क्योंकि ait में से एक में भी सम्यक् प्रकार से Raa
16
+ पुरुष दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता
17
+ ह ।।`४ il
18
+
19
+ It is the ignorant, not the wise, who say
20
+ that Sankhyayoga and Karmayoga lead to
21
+ divergent results. For one who is firmly
22
+ established in either gets the fruit of both
23
+ (which is the same, viz., God-Realization)(4)
24
+
25
+ एक सांख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति । । ५ । ।
26
+
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1
+ हे कर्मयोगियोद्वाराभीवहीप्राप्तकिंयाजाताहे।
2
+ इसलिये जो पुरुष ज्ञान योग और कर्मयोग को फलरूप
3
+ में एक देखता है, वही. यथार्थ देखता है ।। ५ ।।
4
+
5
+ The (supreme) state which is reachd by
6
+ the Sankhyayogi is attained also by the
7
+ Karmayogi. Therefore, he alone who sees
8
+ Sankhyagoga and Karmayoga as one (so far
9
+ as their result goes) really sees. (5)
10
+
11
+
12
+ x
13
+ Att,
14
+ SLA
15
+ LIE २
16
+
17
+ iit
18
+
19
+ gE
20
+
21
+ प्रसंग --सांख्ययोग और कर्मयोग के फलकी एकता बतलाकर अब कर्मयोग at साधनविषयक
22
+ विशेषता को स्पष्ट करते हैं--
23
+
24
+ संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।
25
+
26
+ योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति । । ६ । ।
27
+ aa, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाला सम्पूर्ण Haft
28
+ में कर्तापन का UM, wed होना कठिन & और
29
+ भगवत्स्वरूप को मनन HA Ae कर्मयोगी परब्रह्म
30
+ परमात्मा को शीघ्र Sf प्राप्त हो जाता है ।। ६ ।।
31
+
32
+ / =——
33
+
34
+
35
+
36
+
37
+ Without Karmayoga, however, Sankhyayoga
38
+ (or renunciation of doership in relation to all
39
+ activities of the mind, senses and body) is
40
+ difficult to accomplish; whereas the Karma-
41
+ yogi, who keeps his mind fixed on God,
42
+ reaches Brahma in no time, Arjuna. (6)
43
+
44
+ e I°}
45
+
46
+ 131
47
+
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1
+ प्नक्ता-अनक्मर्युक्तकर्पयोगींफेल्यार्णोकाक्यनिक्तोहुएउसर्केकर्मोमेंलिप्तनवोनेकोक्ता “Tay
2
+
3
+ ee
4
+ सर्वभूतात्मंभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।। ७ ।।
5
+
6
+ जिसका AA अपने वश A है, जो जितेन्द्रिय एवं
7
+ विशुद्ध अन्त:करण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का
8
+ आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, Gat कर्मयोगी
9
+ कर्म करता sar Ht लिप्त नहीं होता ।। ७ ।।
10
+
11
+ The Karamayogi, who has fully conquered
12
+ his mind and mastered his senses, whose heart
13
+ is pure, and who has identified himself with
14
+ the self ofall beings (viz, God), remains untainted,
15
+ even though performing action. (7)
16
+
17
+ प्रसंग --दूसरे श्लोक में कर्मयोग और सांख्ययोग की सूत्र रूप से फल में एकता बतलाकर सांख्ययोग
18
+ की अपेक्षा सुगमता के कारण कर्मयोग श्रेष्ठ बतलाया | फिर तीसरे श्लोक में कर्मयोगी at प्रशंसा करके,
19
+ चौथे और stat श्लोकों में दोनों के फल St एकता का और स्वतन्त्रता का भलीभाति प्रतिपादन किया |
20
+ तदनन्तर BS श्लोक के पूवार्द्ध में कर्मयोग के बिना सांख्ययोग का सम्पादन कठिन बतलाकर उत्तरार्द्ध
21
+ में कर्मयोग की सुगमता-का प्रतिपादन करते हुए सातवें श्लोक में कर्मयोगी के लक्षण बतलाये | इससे ae
22
+ बात सिद्ध हुई कि eat साधनों का फल एक होने पर भी दोनों साधन परस्पर भिन्न FI अत: दोनों का
23
+ स्वरूप जानने की इच्छा होने पर भगवान् पहले, आठवें और ad श्लोकों में सांख्ययोगी के व्यवहार काल
24
+ के साधन का स्वरूप बतलाते हैं--
25
+
26
+ प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नु न्मिषन्निमिषन्नपि ।
27
+ इज्रियाणींन्दियार्येबु वर्तन्त इति थाय्यन्। lel
28
+
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1
+ सुनता SS, Gael करता Ba, FAaT SST, भोजन
2
+ PLAT SSM, TAA HLA EST, सोता SAT, श्वास लेता
3
+ तथा ऒओखो को खोलता और Yaar sor भी ase
4
+ समझकर नि:सन्देह Car माने कि मैं aye भी नहीं करता
5
+
6
+ ह ।। द-८६ ||
7
+ The Sankhyayogi, however, who knows
8
+ the reality of things; must believe, even
9
+ though seeing, hearing, touching, smelling,
10
+ eating or drinking, walking, sleeping, breathing,
11
+ | speaking, answering the calls ofnature, grasping
12
+ ey and opening or closing the eyes, that he
13
+ -« | does nothing, holding that it is the senses
14
+ that are moving among their objects. (8,9)
15
+
16
+ प्रसंग --इस प्रकार सांख्ययोगी के साधन का स्वरूप बतलाकर अब दसवें और ग्यारहवें श्लोकों में
17
+ ` |: कर्मयोगियों के साधन का फलसहित स्वरूप बतलाते है--
18
+ ब्रह्मण्याधाय BAM WTA करोति य: |
19
+
20
+ frat न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा । । १०।।
21
+
22
+ 133 श्रीमद्भगवद्गीता
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1
+ LESS
2
+ ॥। २९
3
+
4
+ 10)
5
+
6
+ LAL
7
+
8
+ होता ।। १० ।।
9
+
10
+ He who acts offering all actions to God,
11
+ and shaking off attachment, remains untouched
12
+ by sin, as the lotus leaf by water. (10)
13
+
14
+ कायेन मनसा Gaal केवलैरिन्द्रियैरपि |
15
+ योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये । । ११ ।।
16
+
17
+ कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि
18
+ SIX शरीर द्वारा भी arate को त्यागकर अन्त:करण
19
+ a शुद्धि के लिये कर्म करते = 1199 ।।
20
+
21
+ The Karmayogis perform action only with
22
+ their senses, mind, intellect and body as well,
23
+ withdrawing the feeling of mine in respect of
24
+ them and shaking off attachment simply for
25
+ the sake of self-purification. (11)
26
+
27
+ SSS
28
+
29
+ Ui | saw wie
30
+
31
+ FZ
32
+ =
33
+
34
+ &
35
+
36
+
37
+
38
+ प्रसंग --इस प्रकार से कर्म करने वाला भक्ति प्रधान कर्मयोगी orat से लिप्त नहीं होता और कर्म
39
+ प्रधान कर्मयोगी का अन्त:करण-शुद्ध हो जाता है, यह सुनने पर इस बात की जिज्ञासा होती है कि कर्मयोग
40
+ का यह अन्त:करण शुद्धि I इतना ही फल है, या gad अतिरिक्त oe विशेष फल भी है ? एवं इस
41
+ TOR कर्म न करके सकामभाव से शुभ कर्म करने में क्या हानि है ? अतएव ae इसी बात को स्पष्टरूप
42
+ से समझाने के feat भगवान् कहते F—
43
+
44
+ युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् |
45
+ Sa: कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।। १२।।
46
+
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1
+ ८// दळळ,५३२३३९ न् . SS य Sy ।
2
+ LEE SFE
3
+
4
+ ty
5
+
6
+ aq omits ora er ® sie sarges era
7
+ की प्रेरणा से फल F Sach होकर STAT है ।। १२ ।।
8
+
9
+ Offering the fruit of actions to God, the
10
+ Karmayogi attains everlasting peace in the
11
+ shape of God-Realization; whereas he who
12
+ works with a selfish motive, being attached
13
+ to the fruit of action through desire, gets tied
14
+ down. (12)
15
+
16
+ प्रसंग --यहाँ यह बात कही गयी कि `कर्मयोगी` कर्म फल से न बैधकर परमात्मा की प्राप्ति रूप
17
+ शान्ति को प्राप्त होता है और `सकाम पुरुष` फल में आसक्त होकर जन्म-मरण रूप बन्धन में पड्ता है,
18
+ * किंतु यह नहीं बतलाया कि सांख्ययोगी का क्या होता है ? अत एव अब सांख्ययोगी की स्थिति बतलाते
19
+
20
+ ze
21
+ सर्वकर्माणि मनसा सन्यस्यास्ते Fa asit |
22
+ नवदारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।१३।।
23
+
24
+ अन्त:करण जिसके वश में है, Car सांख्ययोग का
25
+ ART करने वाला पुरुष न करता Se AK न
26
+ करवाता SA Sf Adal वाले शरीर BT घर में सब
27
+ कर्मो को मन से त्यागकर आनन्दपूर्वक सच्चिदानन्दघन
28
+ परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है ।। १३ ।।
29
+
30
+ The self-controlled Sankhyayoga, doing
31
+ nothing himself and getting nothing done by
32
+ others, rests happily in God, the embodiment
33
+
34
+ ULL YY Lin y 26 OS ३७७३ ७२९९
35
+
36
+ ae? श्रीमद्र्भगवद्गीता
37
+
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1
+ 3
2
+
3
+ ७७
4
+
5
+ ¥ LLL e@ 4
6
+
7
+ of Truth, Knowledge and Bliss, mentally
8
+ relegating all actions to the mansion of nine
9
+ gates (the body with nine openings). (13)
10
+
11
+ प्रसंग --जबकि आत्मा वास्तव में कर्म करने वाला भी नहीं है और इन्द्रियादि & करवाने aren भी
12
+ wel है, तो फिर सब मनुष्य अपने को कर्मो का कर्ता क्यों मानते है और a कर्म फल के भागी क्यों aa
13
+ हैं--
14
+
15
+ न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति Ay: |
16
+ न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु `प्रवर्तते । । १४।।
17
+ परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मो ar
18
+
19
+ स्वभाव ही बर्त रहा है ।। १४ ।।
20
+
21
+ God determines not the doership nor the
22
+ doings of men, nor even their contact with
23
+ the fruit of actions; but it is Nature alone
24
+ that functions. (14)
25
+
26
+ प्रसंग ol साधक समस्त कर्मो को और कर्म फलो को भगवान् के अर्पण करके कर्म Ga से अपना
27
+ सन्वन्ध-बिर्च्छदकालेतेहैं,उनर्केशुभाशुभकर्मौर्कफलफेच्चणीक्याफ्याहोत्तेहें?झाजिज्ञप्ता
28
+ पर Hed हैं--
29
+
30
+ Ted कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:।
31
+ अज्ञानेनाव्रतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव: । । १४।।
32
+ सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के arg कर्म को
33
+
34
+ Ny) ` । । प 2 ॠ ।) । न ‘ -
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1
+ ३ GYM GA YYW ZopoNSS SHV SSS SS
2
+ 222
3
+ YY
4
+
5
+ 27
6
+ धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: |
7
+ मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय । । १।।
8
+
9
+ Gass बोले--हे सञ्जय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में
10
+ एकत्रित, युद्ध की इच्छा Act मेरे AK पाण्डु के GS
11
+ ने क्या किया ? ।। १ ।।
12
+
13
+ Dhratrastra said: Safijaya, gathered on
14
+ the sacred soil of Kuruksetra, eager to fight,
15
+ what did my children and the children of
16
+ Pandu do? (1)
17
+
18
+ TAT — धृतराष्ट्र के IA पर सञ्जय Hed F—
19
+ सञ्जय उवाच
20
+ eM तु पाण्डवानीक व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
21
+ आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् 11211
22
+ सञ्जय बोले--उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूह
23
+ रचनायुक्त West की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य
24
+ के पास जाकर Ge वचन Her ।। २ ।।
25
+ Safijaya said :At that time, seeing the army
26
+ of the Pandavas drawn up for battle and
27
+
28
+ ‘e) approaching Dronacarya King Duryodhana
29
+ _| spoke these words: (2)
30
+
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1
+ ARO
2
+
3
+ SSS SS
4
+
5
+ ny
6
+
7
+ SS.
8
+
9
+ ६० च
10
+ २६
11
+
12
+ अज्ञान के AR SAT SH Sat है, St से सब अज्ञानी
13
+ मनुष्य मोहित हो रहे हैं ।। १५ ।।
14
+
15
+ The omnipresent God does not receive the
16
+ virtue or sin of anyone. Knowledge is envel-
17
+ oped in ingorance; hence it is that beings are
18
+ constantly falling a prey to delusion. (15)
19
+
20
+ ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन:।
21
+ तेषामादित्यवज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्̣ । । १६।।
22
+
23
+ परन्तु जिसका वह अज्ञान परमात्मा के तत्त्व ज्ञान
24
+
25
+ द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के
26
+ Tal Sa सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित HK
27
+ देता है ।। १६ ।।
28
+
29
+ In the case, however, to those whose
30
+ said ignorance has been set aside by true
31
+ Knowledge of god, that wisdom shining like
32
+ the sun reveals the supreme. (16)
33
+
34
+ प्रसंग --यथार्थं ज्ञान से परमात्मा की प्राप्ति होती है, यह बात संक्षेप में कहकर अब छब्बीसवें श्लोक
35
+ तक ज्ञानयोग द्वारा परमात्मा को प्राप्त होने के साधन तथा परमात्मा को प्राप्त सिद्ध TOSS लक्षण, आचरण,
36
+ महत्त्व Gk Rafe का वर्णन करने के उद्देश्य से पहले यहाँ ज्ञानयोग के एकान्त साधन द्वारा परमात्मा
37
+ की प्राप्ति बतलाते F—
38
+
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1
+ जिनका AA तद्रूप हो ter है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो
2
+ रही डै ak सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही जिनकी
3
+ निरन्तर एकीभाव से Rafa है, ऐसे तत्परायण पुरुष
4
+ ज्ञान के द्वारा पापरहित होकर ayaa को अर्थात्
5
+ परमगति को प्राप्त होते हैं ।। १७ ।।
6
+
7
+ Those whose mind and intellect are wholly
8
+ merged in Him, who-remain constantly
9
+ established in identity with Him, and have
10
+ finally become one with Him, their sins being
11
+ wiped out by wisdom, reach the state whence
12
+ there is no return. (17)
13
+
14
+ प्रसंग -परमात्मा की प्राप्ति का साधन बतलाकर अब परमात्मा को प्राप्त सिद्ध Tost के `समभाव`
15
+ का वर्णन करते हैं--
16
+
17
+ विद्याविनयसंपन्ने at गवि हस्तिनि |
18
+ शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन: । । १८।।
19
+
20
+ वे ज्ञानीजन विद्या six विनययुक्त ब्राह्मण में तथा .
21
+ गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते
22
+ हन्र
23
+
24
+ The wise look with the same eye on a
25
+ + \|\ Brahmana endowed with learning and
26
+
27
+ culture, a cow, an elephant, a dog, and a
28
+ pariah too
29
+
30
+ WW
31
+
32
+
33
+
34
+ पञ्चम अध्याय 138
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1
+ ट्रै DY If, Sy SS.
2
+ <0; Zig SS
3
+
4
+ प्रसंग --इस प्रकार तत्त्वज्ञानी के समभाव का वर्णन करके अब समभाव को ब्रह्म का स्वरूप बतलाते
5
+ हुए sey faa Fergest की महिमा का वर्णन करते हैं--
6
+
7
+ इहैव तैर्जित: ait येषां ara स्थितं मन: |
8
+ निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिता: । । १६।।
9
+
10
+ जिनका मन समभाव में स्थित है, Sah द्वारा इस जीवित अवस्था
11
+ में ही at dan sia त्रिया गया है, क्योंकि सच्चिदानन्दघन
12
+ परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में
13
+ a स्थितं हैं ।। १६ ।।
14
+
15
+ Even here is the mortal plane conquered
16
+ by those whose mind is established in unity;
17
+ since the Absolute is untouched by evil and
18
+ knows no distinction, hence they are established
19
+ in the Eternal. (19)
20
+
21
+ प्रसंग -अब निर्गुण निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त समदर्शी सिद्ध पुरुष के लक्षण बत्लाते
22
+
23
+ ति न प्रहृष्येत्प्रिय प्राप्य नोद्रिजेत्प्राप्य चाप्रियम् |
24
+ स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद ब्रह्मणि स्थित: । । २०।।
25
+
26
+ जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और
27
+ अप्रिय को प्राप्त होकर Slat न हो, ae स्थिर gfe
28
+ संशयरहित Sead Jeu सच्चिदानन्दघन परब्रह्म
29
+ परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थितं है ।। २० II
30
+
31
+ 139 | श्रीमद्भगवद्गीता ।
32
+