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गयी कि ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार के बिना
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केवल त्लोकसंग्रह के ford शासत्रसम्मत यज्ञ, दान और तप आदि समस्त कर्म करता EST भी ज्ञानी पुरुष
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वास्तव 4 ae भी नहीं Hear! इसलिये ae कर्मबन्धन में नहीं पड्टता । इस पर यह प्रश्न उठता है कि
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ज्ञानी को आदर्श मानकर ody प्रकार से कर्म करनेवाले साधक at नित्य-नैमित्तिकं आदि af का त्याग
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नहीं करते, निष्कामभाव से wa प्रकार के शासत्रविहित कर्त्तव्य anf का अनुष्ठान करते ted है--इस कारण
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वे किसी पाप के भागी नहीं बनते; fag जो साघक शासत्रविहित यज्ञ-दानादि कर्मो का अनुष्ठान न करके
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केवल शरीर निर्वाह मात्र के लिये आवश्यक शौच-स्नान he खान-पान आदि कर्म ही करता है, ae at
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पाप का भागी eter er | ऐसी शंका की निवृत्ति के लिये भगवान् कहते है--
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निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह: |
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शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् । । २१।।
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जीता Sar है और जिसने समस्त APT Hr सामग्री का
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परित्याग ax fear है, Car आशारहित पुरुष केवल
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शरीर-सम्बन्धी कर्म HCA SAT HT पाप को नहीं प्राप्त
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होता ।। २१ ।।
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Having subdued his mind and body, and
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given up all objects of enjoyment, and free
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from craving; he who performs sheer bodily
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actions, does not incur sin. (21)
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प्रसंग --उपर्युक्त श्लोकों में यह बात सिद्ध की गयी कि परमात्मा को प्राप्त सिद्ध Terres का तो
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कर्म करने या न करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा ज्ञानयोग के साधक का ग्रहण SA त्याग शासत्रसम्मत,
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आसक्तिरहित और ममतारहित erat है; अत: वे कर्म करते हुए या उनका एयाग करते हुए--सभी अवस्थाओं
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4 कर्मबन्घन से aden मुक्त Fl अब भगवान् यह बात दिखलाते & कि कर्म मैं अकर्मदर्शन पूर्वक कर्म
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करने वाला कर्मयोगी tt asters में नहीं पडता--
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